पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/४३५

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४३२ यदरा जोनेको जरा भी आशा नहीं की जा सकती । बल रास्तेमें चलनेके कारण शोषरोगीके लक्षण-अत्यन्त मलमूलक तथा जीवन शुक्रमूलक है, अतएव जिससे पथश्रान्तिप्रयुक्त शोप रोग होनेसे शरीर शिथिल और यक्षमरोगोका शुक्रक्षरण और मलका परित्याग न हो उस वर्ण भूनी हुई वस्तुकी तरह कर्कश होता है, उसे स्पर्श- ओर चिकित्सकको विशेष ध्यान रखना चाहिये। इस ज्ञान नहीं रहता, कण्ठ और मुह हमेशा सूखता रहता है। गोके दोनों नेत्र शुक्लवर्ण अथवा अन्नमें अरुचि या व्यायामके कारण शोषके लक्षण-बहुत परिश्रमसे ऊर्ध्वश्वास अथवा बहुत कष्टके साथ अधिक शुकरण शोप उत्पन्न होने पर पूर्वोक्त पथपर्यटनके कारण शोष होनेसे तुरत मृत्यु है: जाती है। रोगीके तथा उरक्षित रोगके सभी लक्षण दिखाई देते हैं। ___ यक्ष्मरोगी यदि थोड़ी उम्रका हो अथच अच्छे वैद्यसे उरम्मतका कारण--धनुः आकर्षण आदि अत्यन्त उसको चिकित्सा को गई हो तथा वह किसी प्रकारका । आयास, गुरुता, भारवहन, बलवानके साथ युद्ध, विषम उलङ्घन न करे, चिकित्सकका नियम ठीक तरह प्रति : अथच उस स्थानसे पतन, द्रुतगामी वलवान् वैल, घोड़े, पालन कर एक हजार दिन जीवित रहे, तो उसके जीवन । हाथो और ऊंटोंकी गति रोकना, लम्वा पत्थर, काठ, को बहुत कुछ आशा की जा सकती है। किन्तु इस पर पत्थरका टुकड़ा या असा चला कर शव को भगाना, अधिक विश्वास नहीं है, यह समय वोत जाने पर यह : जोरसे पढ़ना, बौड़ कर बहुत दूर जाना, तैर कर नदी छोड़ा भी जा सकता है, पर उसको सम्भावना बहुत कम पार करना, घोड़े के साथ दौड़ना, तेजीसे नाचना तथा है। अतः यह रोग नहीं छूटता है ऐसा कहनेमें कोई : अन्यान्य मल्लयुद्धादि, किसी प्रकार कर्मसे अभिहत और अत्युक्ति नहीं। अतिशय मैथुन आदि कारणोंसे वक्षःस्थल (छातो ) में जो यक्ष्मरोगी ज्वरविरहित, वलयान, क्रियासहनहोन | उरक्षत रोग होता है। व्याधिप्रशमन विषयमें यत्नवान्, दीप्ताग्मि तथा कृशता- इससे वक्षमें भङ्ग, विदारण तथा भेदवत् . वेदना, हीन हो उसीकी चिकित्सा करनी चाहिए। शूल, पादशुष्कता, गात्रकम्प, पाव में वेदना और शरीर . इस रोगके विशेष विशेष लक्षण-अतिशय स्त्री- सूख जाता है । वीर्य, वल, वर्ण, रुचि और अग्नि क्रमशः प्रसंग करनेसे जिसे यह रोग होता है उसे शुक्रायसे क्षीण हो जाती है. तथा ज्वर, गात्रवेदता, मनकी ग्लानि, उत्पन्न लक्षण दिखाई देते हैं अर्थात् शिश्न और अण्ड. म.भेद और अग्निमान्द्य होता है। इसमें खांसोके साथ कोप वेदना और रति-कोड़ामें असमर्थता होती, बहुत दूषित श्याव अथवा पीला दुगन्धित रक्तमें मिला हुआ समयके वाद थोड़ा शुक गिरता, रोगो पाण्डु वर्णका हो गठीला कफ वरावर निकलता रहता है। शुक्र और जाता और पूर्वानुक्रमले अर्थात् पहले शुक्रमीण और ओजोधातु क्षय होता हैं जिससे रोगी वहुत दुर्वल हो पोछे मजाक्षीण विपरीत क्रमसे धातुक्षीण हुआ करता है। जाता है। इस रोगका पूर्वरूप प्रायः प्रकाशित नहीं ___ शोकज शोषलक्षण-शोकके हेतुभूत नष्ट वस्तुकी होता। चिन्ता करनेसे शरीरमें शिथिलता विना मैथुनके शुक्रक्षय इसके विशिष्ट लक्षण--उरःक्षत रोगीके वक्षःस्थलमें तथा शोषके दूसरे दूसरे लक्षण हुआ करते हैं। वेदना, रक्तवमन तथा अत्यन्त कास होता है । इसमें वार्धक्यके कारण शोषके लक्षण वाक्य वशतः रक्तमिश्रित पेशाव उतरता तथा वगल, पीठ और कमर में ..... ::- शोष उत्पन्न होनेसे रोगीको कृशता तथा वीर्य, बुद्धि, वेदना होती है। वल भौर इन्द्रियशक्तिको अल्पता, कम्प, अरुचि, फूटे मलमूलादिके रोकने और धातुक्षयके कारण वातादि कांसेके बरतनके शब्दके समान स्वर, बड़ी चेटा करने दोष प्रतिलोमको प्राप्त हो कर यह रोग उत्पन्न करता पर.भी श्लेष्माके न निकलनेसे शरीरको गुरुता, अरुचि है। इसमें अन्नका अपरिपाक तथा निःश्वास अत्यन्त पूतिगन्धयुक्त होता है। मुख, नासिका. और चक्षसाव, वल तथा प्रतिभा शुष्क और रुक्ष हो जाती है। . इस रोगीके वल या अग्निकी दीप्ति रहनेसे एवं