पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/४३६

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यदमा ४३३ . रोगका लक्षण थोड़ा और थोड़े दिनका रहनेसे उसका तथा शिरोवेदना, अरुचि, कास, प्रतिश्याय और अङ्गमर्द रोग इलाजसे अच्छा होता है। अगर एक वर्षसे अधिक श्लेष्माधिक्यके लक्षण हैं.1 जिसके जिस दोषकी अधि. समय तक यह रोग सब लक्षणोंसे युक्त रहे. तो उसे कता होती है उन सब लक्षणों से वहीं दोषज लक्षण उन- असाध्य जानना चाहिये। (भाषप्र० यक्ष्मरीगाधि०) के अधिकतर प्रकाशित होते है। सुश्रुतके मतसे इस रोगका निदान-मूलमूतादिका साध्यासाध्यनिर्णय-यक्ष्मरोग स्वभावतः हो वेग धारण, अति मैथुन और अतिरिक उपवास आदि | दुःसाध्य है। रोगीका वल और मांस.क्षीण न होनेसे । धातुक्षयकारक कार्य, बलवान व्यक्तिके साथ मल्लयुद्ध उक्त प्रतिश्याय आदि ग्यारह लक्षण दिखाई देनेके. वाद तथा किसी दिन थोड़ा, किसी दिन अधिक अथवा भी आरोग्य होनेकी आशा की जा सकती है। किन्तु असमय पर भोजन आदि कारणोंसे यक्ष्मरोग होता है। यदि वल और मांस क्षीण हो जाय अथच ये ग्यारह लक्षण रक्तपित्त पीडाको बहुत दिनों तक इलाज नहीं करानेसे दिखाई न दे कर कास, अतीसार, पार्श्ववेदना, स्वरभङ्ग, वह क्रमशः राजयक्षमरोगमें परिणत हो जाती है। वायु, अरुचि और ज्वर ये छः लक्षण दिखाई दें अथवा श्वास, पित्त और कफ ये तीन दोष जव कुपित हो कर रसवाही कास और रक्तनिष्ठीवन केवल यही तीन लक्षण प्रका- शिराओंको रुद्ध करते हैं तब क्रमशः रत, मांस, मेद, शित हों, तो भी रोग असाध्य समझा जाता है। अस्थि, मजा और शुक्रधातु क्षीण हो जाती हैं। कारण, सांघातिक लक्षण-यक्ष्मरोगी अधिक खाने पर भी रस हो सव धातुओंको पुष्टि करनेवाला है। उस रसकी यदि क्षीण होता जाय अथवा अतीसार उपद्रवयुक्त हो गति रुद्ध हो जाने पर दूसरी किसी धातुका पोषण किंवा उसके मंडकोष और उद्र में सूज जाय, तो उसे नहीं हो सकता। अथवा अतिरिक्त मैथुनके कारण | भी असाध्य जानना होगा। दोनों नेल रक्तहीनताके शुकक्षय होनेसे उस शुक्रको क्षोणता पूरी करनेमें अन्यान्य कारण अत्यन्त शुक्लवर्णता, अन्नमें विद्वेष, ऊवश्वास धातका भी क्रमशः क्षय हुआ करता है। इसोका नाम और बड़े कष्टसे अधिक शुक्रक्षय इनमें जो कोई उपद्रव क्षयरोग या यक्षमा है। उपस्थित होगा उसकी भी मृत्यु निकट समझनी पूर्व लक्षण-इस रोगके उत्पन्न होनेसे पहले श्वास, अङ्गवेदना, कफ, निष्ठीवन, तालुशोष, वमि, अग्निमान्य, उरक्षत-निदान-गुरुभार वहन, बलवानके साथ मत्तता, प्रतिश्याय, कास, निद्राधिक्य, दोनों नेत्रोंकी मलयुद्ध, उच्च स्थानसे पतन, गो, अश्व आदिको दौड़ते शुक्लता, मांसभक्षण और मैथुनमें वाह आदिका लक्षण | समय वलपूर्वक एकड़नापत्थर आदि पदार्थको वलसे पहले ही प्रकाशित होते हैं । फिर इस समय रोगोको स्वप्न दूर फेकना, तेजीसे बहुत दूर जाना, बड़े जोरसे पढ़ना, में दिखाई देता है, कि पक्षी, पतङ्ग और श्वापद उसे आक- अधिक तैरना और कूदना तथा अधिक स्त्री-सहवास मण कर रहा है। केश, भस्म और अस्थिस्तूपसे ऊपर करना, वक्षःस्थलमें वेदना होनेका प्रधान कारण है। जो वह मानों खड़ा है, जलाशय सूख गया है तथा पर्वत और हमेशा कभी वेशो और कभी कम भोजन करते हैं उन्हों- ज्योतिष्क उस पर टूट कर गिर रहा है। का वक्षःस्थल क्षत होनेकी अधिक सम्भावना है। इस साधारण लक्षण-रोग उत्पन्न होनेके बाद प्रति- प्रकार जो वक्षस्थल क्षत होता है उसीको उरक्षित कहते श्याय, कास, खरभेद, अरुचि, दोनों पाचौंका संकोच हैं। इस रोगमें वक्षःस्थल विदीर्ण या भिन्न हुआ-सा और वेदना, शिरमें दर्द, ज्वर, स्कन्ध देशमें अतिमात्र मालूम होता है तथा दोनो पाञ्चों में वेदना, अङ्गशोष और सन्ताप, अङ्गमद, रक्तवमन और मलभेद ये सव लक्षण, कांपता रहता है। क्रमशः वल, वीर्य, वर्ण, रुचि दिखाई देते हैं। इसमें खरभङ्ग, स्कन्ध और दोनों पावा- और अग्निको होनता, तथा ज्वर, व्यथा, मनोमालिन्य, का संकोच वा वेदना, वाताधिक्यके लक्षण, ज्वर, मलभेद, कासके साथ दुर्गन्धविशिष्ट श्याव या पीत- सन्ताप, अतोसार और रक्तनिष्ठोवन पित्ताधिक्यके लक्षण । वर्ण अन्हिल और रकमिश्रित कफ हमेशा अधिक परि- . Vol. xVIII, 109 .