पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/४३८

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यदया ४३५ काढ़े को २ तोला धोमें वधार कर उसमें थोड़ा हींग, । यक्ष्मा कहते हैं। यह दो प्रकारका है, प्रवल और पोपलका चूर्ण और सोंठका चूर्ण मिला कुछ काल नक पुरातन । पाक करे। पाक शेष होने पर उसमे थोड़ा अनारका किसी किसी अन्धकारका कहना है, कि यक्ष्मारोग रस डाल रोगोको पान करावे। यह जूस यक्ष्मरागमें | प्रदाहके कारण उत्पन्न होता है। किन्तु ढा० चाकर बहुत हितजनक और पुष्टिकारक है । इस रोगमें गरम ( Dr. Charcot) तथा अन्यान्य श्रेष्ठ चिकित्सक कहते के सञ्चारके कारण यह पीड़ा जलको ठंढा कर पिलाना उचित हैं। शरीरको हमेशा कपड़े ढका रखना चाहिये। होती है। डा. रावर्ट ( Dr. Roberts ) के मतसे य निषिद्धकर्म-इस रोगमें ठंढमें रहना,धूप सेवना, रोग कई प्रकारले हो सकता है ;- रातमें जगना, गीत गाना, जोरसे घोलमा, घोड़े पर चढ़! (१) पस न्युमोनियामें प्रदाहयुक्त खण्ड स्वाभा- कर घूमना, मैथुन करना, मलमूत्रका वेग रोकना, व्यायाम . विक भावको प्राप्त न हो कर यदि पनीरवत् अपकटतामें करना, राह चलना, श्रमजनक कार्य करना, तम्बाकू पोना, परिणत हो, तब यह रोग होता है। मछली, दही, कटुद्रव्य, अधिक लवण, सेम, मूली, आलू, (२) कैटेरेल न्युमोनियामें यदि वधुतसे नवजात उड़द, शाक, हींग, प्याज और लहसुन आदि खाना बहुत एपिथिलियेल कोप विगलित और शोपित न हो, तो हानिकारक है। इस रोगमें शुक्रक्षय होने न पावे इस उनके भीतरी चापके द्वारा भास पासका फुसफुस- पर विशेष ध्यान रहे जिन सब कारणोंसे मनमें कामभाव , विधान विध्वंस हो कर कोटर उत्पन्न करता है। डा. उपस्थित हो, उनका हमेशा परित्याग करना चाहिये। । निमेयरके मतसे इसीसे अधिकांश प्रवल यक्ष मरोगकी यह रोग महापातकज है। जिन्होंने पूर्वजन्ममें महा- - उत्पत्ति होती है। पातक किये हैं, नरक भोगनेके बाद इस जन्ममें उन्हें वह (३) पुरानो न्युमोनियासे जो यक्ष मा होती है उसे महापातक व्याधिकपमें पीड़ित करता है। अतएव इस । फाइब्रयेड थाइसिस कहते हैं। व्याधिके होनेसे सबसे पहले उसका प्रायश्चित्त (४) वायुकोषके मध्य नये नये पपिथिलियेल-कोष करना उचित है। कारणका नाश होनेसे कार्य उत्पन्न न हो कर वहां स्य वाके ल उत्पन्न होता है तथा आपे आप निवृत्त होता है । इस व्याधिका परस्पर संयोग द्वारा लोना-कार धारण करता हैं । अन्तमें कारण महापातक है, इसलिये सबसे पहले महापातकका : वे सव तथा आस पासके अंश गल जाते हैं। उपदंश- नाश करना चाहिये। पापका क्षय होनेसे पापसे होने-, पीड़ा-जनितंगामेटाका सञ्चार होनेसे उक्त कोषमें यक्ष मा वाले रोगका भी नाश होता है। इसलिये सबसे पहले । उत्पन्न होती है। प्रायश्चित्तानुष्ठान करके सुवैद्य द्वारा अच्छी तरह (५) पलमोनारी धमनीकी शाखामें एम्बलिजम् चिकित्सा करावे। होनेसे कभी कभी यक्षमा हो सकती है। यदि कोई मोहवशतः प्रायश्चित्त न करे और इस कौलिक। २२०से ३० वर्षके व्यक्तिके लिये। रोगसे उसकी मृत्यु हा जाय, तो उसका दाह, अशौच | ३ शारीरिक दुर्बलता। ४ कार्यविशेष ; जैसे-नाना मादि कुछ भी नही होगा। यदि कोई उसका दाहादि | प्रकारका उत्तेजक द्रव्य सूधना अथवा अस्वास्थ्यकर करे, तो उसे भी यतिचान्द्रायण करना होगा। स्थानमें रहना। ५शिपिल स्वभाव, अमिताचार और (प्रायश्चित्तवि०) अन्यान्य अनियमित कार्य। ६ मन्द खाद्यद्रव्य तथा परि- पाश्चात्य चिकित्सकोंके मतसे फुसफुस-विधान | पाकका व्यतिक्रम। ७ अपरिष्कार वायुसेवन, वस्त्रादि कठिन है और उसमें क्रमशः मौलिक पति अर्थात् | हा समाचार संकोचन । ८ साली जगह में रहना गर्स आदि होने तथा रक्तकाश, ध्यासाच्छ, शोणता, अथवा वहाँको वायुमें अधिक ठंढ रहनेस अत्यन्त मान- दुर्वलता और ज्वरके लक्षण आदि वर्तमान रहनेसे उसे | सिक परिश्रम, मनस्ताप और शोक इत्यादि । खांसी;