पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/४४०

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यक्ष्मा . ४३७ आक्रान्त होता है। रोग ऊपरसे धीरे धीरे नीचे चला | सर्वदा पेशीके सञ्चालन द्वारा वह वेदना उत्पन्न होनेकी आता है। डाक्टर फाउलवके मतानुसार एपेक्सके १ सम्भावना है। खांसी पहले सूखी और कष्टकर होती वा १॥ इञ्च नोचे तथा फुस्फुसके वाह्य और पश्चाद्भागौ | तथा खानेके वाद, रातमें और सोनेके समय वा सो कर पोड़ा शुरू होती है। उठने के बाद बढ़ जाती है। लेरिसकी श्लैष्मिक झिाली- - इस पोड़ासे मृत्यु होने पर दोनों फुस्फुसमें थोड़ा के आक्रान्त होनेसे खांसी कर्कश और स्वरभङ्ग होता है। • बहुत परिवर्तन होता है। रोगके आरम्भमें फुस्फुसके कभो कर्भः खांसी इतनी बढ़ जाती है, कि कै हो जाता ऊपरी भाग पर एकत्र सञ्चित अथवा आपसमें विभिन्न | है। इसके बाद ही श्लेष्मोद्गम होते देखा जाता है। यह छोटे छोटे पांशुवर्णके ट्युवाल उत्पन्न होते हैं। उस पहले खच्छ और तरल, कमो दृढ़ और अखच्छ होतो है। समय पीड़ित अंश कठिन और जेलेरिनके जैसा दिखाई। इसके बाद श्लेष्मामें पोप रहने तथा यक्षमा-गह्वरके बड़े देता है। गुटिका पहले वायुकोषमें ब्राहको श्लैष्मिक होनेसे श्लेशा दुर्गन्ध, सन और पोली होती है। भिल्ली में वक्षावरक मिल्ली ( Pleura ) के नीचे रक्त- जलमें वह इव जाती है। नालीके चारों ओर वा आस पासको लसोकाग्रन्थियोंमें अणुवीक्षण द्वारा परीक्षा कर देखनेसे उस श्लेष्मामें (Lymphatic glands) उत्पन्न होती है । पोछे उन गुटि- पोप, रकणिका, बहुसंख्यक वसाकोष और तैलविन्दु, काओंका रंग पीला और वह स्थान कोमल हो जाता है, ! कङ्करवत् चूर्ण और फुसकुस झिल्ली दृष्टिगोचर होतो है । रोग जब आरोग्य होने पर होगा, तब गुटिका गल कर रासायनिक परीक्षा द्वारा उसमें शर्करा पाई जाती है। शरीरमें मिल जायगो अथवा श्लेष्माके साथ वाहर इस पीड़ामें रककाश एक प्रधान लक्षण है। ..अनेक निकल आयेगी। समय यह रोगके शुरूमें हुआ करता है । शोणित श्लेष्मा- ____कभी कभी उन गुटिकाओंके चूर्णापकृष्टतामें परिणत के साथ वह रेखावत् दिखाई देतो अथवा एक वार, होनेसे रोग स्थगित हो जाता है। किन्तु इनके गलनेसे इतना अधिक निकलता है, कि रोगोका जीवन नष्ट हो अकसर छोटे छोटे गर्त उत्पन्न हुआ करते हैं तथा उन सकता है। रक्तश्लेष्माके साथ संश्लिष्ट हो कर बाहर सबके एक साथ मिल जानेसे एक बड़ा यक्ष्मगहर वन निकलनेले यक्ष्माके साथ कैटरेल न्युमोनिया रहनेको जाता है। उसके निनदेशकी श्लेष्मा और विगलित | सम्भावना है। थोड़ा रक्तस्राव होनेसे रोगी कुछ शान्ति • मिल्लो तथा कभो कमी ऊपरमें बकाइका छिद्र रहता है। मालूम करता है, किन्तु रक यदि अधिक निकले, तो वे छिद्र गोल या अण्डाकारके होते हैं। कभी कभी वे दुर्वलता बढ़ जाती है। किसी किसी ग्रन्थकारका कहना विलकुल बंद हो जाते हैं। रकनालिया रुद्ध वा स्वाभा- है, कि ब्रहियेल कैशिकासे रक्तस्राव होता है। किन्तु विक रहती हैं। कभी कभी दो एकके मध्य पनिउरिजम बहुतेरे पलमोनरी धमनोकी छोटी छोटी शाखासे इसको वा एकृसियस दिखाई देता है। अलावा इसके न्युमो- उत्पत्ति बतलाते हैं। .निया, घङ्काइटिस, पुरानो प्लुरिसी तथा कहीं कहीं। फुस्फुस्के मध्य ट्युवाल सञ्चित होनेसे शरीर कोलाप्स आव लंस वा एम्फिसिमाका चिह्न रहता है। गरम हो जाता है। वह गरमी कभी १०१।२०२ और लेरिसमें तथा वाइको श्लैष्मिक झिल्ली में नाना प्रकारके कभी १०३२१०४ डिग्री तक चढ़ आती है। व्यवा- क्षत देखे जाते हैं। कल जव गलने लगता है, तब शरीरकी गरमी उससे कम पीड़ा प्रायः हठात् रक्तात्काशले भारम्भ होती है। अर्थात् १०१से १०० तक हो जाती है। छिद्र होनेसे 5.कभी कभी वह फुस्फुसको पौड़ाके परिणामस्वरूप उप- पुनः ज्वर बढ़ जाता है। कैटेरेल न्युमोनियामें ट्युवर्कल स्थित होती है। रोगका निरूपण करनेके लिये रोग- सचित होनेसे उक्त पोडाका उत्ताप वढता है। कोई स्थानमें भी कुछ लक्षण रहते हैं। कोई कहते हैं, कि पीड़ित पार्शका उत्ताप जो वढ़ जाती . .छातीमें जगह जगह वेदना होती है। प्लुरिसी वा है वह विश्वासयोग्य नहीं है। नाड़ी-गति १०० से Val, xVIII, 110 .