पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/४४४

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यक्ष्मारिलौह-यजय खांसी, खरभङ्ग, क्षयकास, क्षत और क्षीण रोग नष्ट होता। गिरती है। इस नदी पर ऋदूर जिलेमें १६ और हसन तथा वल, वर्ण और अग्निकी वृद्धि होती है। जिलेमें ५ आनिकट हैं। यक्ष्मारिलौह (सं० क्ली) यक्षमरोगनाशक औषधविशेष। यगण (सं० पु०) छन्दःशास्त्रमें आठ गणोंमेंसे एक। यह प्रस्तुत प्रणाली-सोनामक्खी, विडङ्ग, शिलाजित, हरेका एक लघु और दो गुरु मालाओंका होता है। इसका चूर और लोहा, इन्हें मधु और धोके साथ पीस कर | संक्षिप्त रूप ये हैं। इसका देवता जल माना गया है चाटनेसे कठिनसे कठिन यक्ष्मा दूर होती है। कवि- और यह सुखदायक कहा गया है। राजश्रेष्ठ भानुदासके मतसे सब चूर्णके वरावर लौहचूर्ण- (यगर-पहाड़ी असभ्यजातिविशेष। ले कर उसे घी और मधुके साथ चाटे तो विशेष लाभ | यगाना ( फा० वि०) १ जो वेगाना न हो, नातेदार । २ पहुंचता है। (भैषज्य. यक्षमाधिकार) | अनुपम, एकता । ३ अकेला, फर्द । (पु०) ४ भाइ-बंद। यक्ष्मिन् ( सं० वि०) यक्षम यक्षमरोगः अस्यास्तीति इनि || ५ परम मित्र । यक्ष्मरोगी, क्षयरोगी। यगूर (हिं० पु०) एक प्रकारको वहुत ऊंचा वृक्ष। इसकी "यक्ष्मी च पशुपालन परिवेत्ता निराकृतिः। लकड़ीका रंग अन्दरसे काला निकलता है। यह सिल. ब्रह्मविद् परिवित्तिश्च गयाभ्यन्तर एवच ॥" | हटकी पूर्वी और दक्षिण पूर्वी पहाड़ियोंमें बहुत होता है। (मनु० ३३१५४) इसकी लकड़ीसे कई तरहकी सजावट की और बहुमूल्य यक्ष्मिणी-वारणसीके अन्तर्गत एक बड़ा गांव । बस्तुए वनाई जाती है । इसे आगमें जलानेसे बहुत उत्तम यक्षमोदा ( सं० स्त्री० ) रोगभेद । गंध निकलती है। इसे सेसी भी कहते हैं। यखनाचाय-दाक्षिणात्यके एक विख्यात स्थपति । प्रवाद यग्य । सं० पु० ) यज्ञ देखो। है, कि वे एक क्षत्रिय और राजपुत्र थे। एक दिन क्रोध- यच्छ (सं० पु० ) यक्ष देखो। में आ कर उन्होंने एक ब्राह्मणकी हत्या कर डाली। यच्छत् ( सं० त्रि०) यम-वा-दान-धातोः शत्। १दान- इसका उपयुक्त प्रायश्विच करनेके लिये वे ब्राह्मणके पास कर्ता, दान देनेवाला। २ उपरमकर्ता, चित्तको हटाने- गये। ब्राह्मणने उन्हें वाराणसीसे कुमारिका तक देव- वाला। मन्दिर बनवा कर अपने पापका प्रायश्चित्त करनेको | यच्छिनी (सं० स्त्री० ) यक्षिणी देखो। आज्ञा दी। तदनुसार उन्होंने यह कठोर व्रत अवलम्वन यज (सं० पु० ) १ यज्ञ । २ अग्नि ! किया था। किसी किसोका कहना है, कि वे पञ्चाल- यजत् (सं० पु.) यज्ञ-शत्र। यागकर्ता, वह जो यह देशवासी थे। देवशिल्पी विश्वकर्माका शिष्य वन कर करता हो । वे स्थापत्यविद्या में बड़े पारदशों हुए थे। गुरुकी आज्ञायजत ( सं० पु०) यजतीति यज् ( मृ-मृ-दशि-यजि पर्विपच्य- से उन्होंने दक्षिणभारतके नाना स्थानों में अपना शिल्प- मितमितमिहर्यिभ्योऽतच् । उण ३३११० ) इति अतच । नैपुण्य दिखानेके लिये वहुत मन्दिर वनाये थे। धारवाड़ १ ऋत्विक् । २एक वैदिक ऋषिका नाम जो ऋग्वेदके जिलेमें आज भी यखनाचार्यको प्रणालोके अनुसार वने | एक मन्त्र के द्रष्टा थे। (त्रि०) ३ यष्टव्य, यजनका मन्दिरका ध्वंसावशेष पड़ा हुआ है। विषयोभूत । यखनी (फा० स्खोर) १ तरकारी आदिका रसा, शोरवा। यजति (सं० पु०) यज्-बाहुलकात्-अति ।याग, यश। २ उवले हुए मांसका रसा। ३ वह मांस जो केवल | यजल (सं० पु०) यजतोति यज ( अमिनाक्षयजिवधिपतिभ्यो लहसुन, प्याज, धनिया और नमक डाल कर उवाल| जन् । उण ३।१०५) इति अनन् । १ अग्निहोत्री।२ लिया जाय। यजनशील, वह जो यज्ञ करता हो। यगछो -मैसूरराज्यके अन्तर्गत एक उपनदी। यह दावा- यजथ (सं० पु०) १ देवपूजा, यज्ञ। २ स्तुतिकर्ता, वह बुन पहाड़से निकल हेमावतीसे मिलती हुई कावेरोमें | जो स्तुति करता हो। Vol, XVIII, 111