पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/४४६

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२४३ यजुवेद-ययजुस, "ऋग्वेदाधिपति वः सामवेदाधिपः कुजः। थी। इसमें देवताओंके नामोंके साथ बहुत से विशेषण भी मिलते हैं जिससे जान पड़ता है, कि भक्तिकी ओर यजुर्वेदाधिपः शुक्र: शशिजोऽथर्ववेदराट् ॥" (ज्योतिस्तत्व भी लोगों के कुछ कुछ प्रवृत्ति हो चली थी। विशेष विवरण वेद शब्दमें देखो। कूर्मपुराणमें लिखा है, कि इस वेदके वक्ता वैशम्पा- यन हैं। पहले यह वेद एक था वाद उसके यह चार | यजुर्वेदिन ( सं०नि०) यजुर्वेदमधीते वेत्ति वा इनि भागोंमें विभक्त हुआ है। यजुर्वेदवेत्ता अध्येता वा । १ ब्राह्मणविशेष । जो यजुर्वेद- "ऋग्वेदश्रावक पैल जग्राह स महामुनिः। के अनुसार सव कृत्य करता है उसे यजुर्वेदी ब्राह्मण यजुर्वेदप्रवक्तारं वैशम्पायनमेव च ॥ कहते हैं । इस देशके वैदिक श्रेणी ब्राह्मणों से जैमिनं सामवेदस्य श्रावकं सोऽन्वपद्यत । अधिकांश हो यजुर्वेदीय हैं। राढीय श्रेणीके मध्य तथैवाथर्ववेदस्य सुमन्तं ऋषिसत्तमम् ॥ यजुर्वेदीय ब्राह्मण नहीं हैं। पशुपति भट्ट आदि इस एक आसीयजुर्वेदस्तञ्चतुर्धाव्यकल्पयत् । यजुर्वेदी ब्राह्मणोंकी संस्कारपद्धति लिन गये हैं। २ चातुत्रियभृद् यस्मिस्तेन यज्ञमथाकरात् ॥ यजुर्वेदका जाननेवाला। आध्वयंवं यजुर्मिः स्याद् भृगभित्रि द्विजोत्तमाः। यजुर्वेदी (सं० वि० ) यजुर्वेदिन देखो। उदगार सामभिश्चके ब्रह्मत्वञ्चाप्यथव मिः ॥" यजुःशाखिन् । सं० त्रि०) यजुःशाखा भुक्त। "ततः स च उद्धृत्य ऋग्वेद कृतवान् प्रभुः । यजुश्रुति (सं० पु० ) यजुर्वेद । यजूसि च यजुर्वेद सामवेदश्च सामभिः ॥ यजुष्क (सं० त्रि०) यजुमन्त्रसम्वलित । एकविंशतिमेदेन ऋग्वेद' कृतवान् पुरा। यजुष्कृत (सं० वि० ) यजुम्मन्नसे पूजा या उत्सर्ग किया शाखायान्तुशवेनाथ यजुर्वेद मयाकरोत् ॥" हुआ। (कूर्मपु. ४६ म.) | यजुकृति (सं० स्त्री०) यजुमन्त्र द्वारा देवताको देना। इसके दो मुख्य भेद हैं-कृष्ण यजुर्वेद और शुक्ल यजुफिया ( स० स्त्री०) यजुस् अभिमन्त्रणरूप यकी यजुर्वेद या वाजसनेयो । कृष्ण यजुर्वेदमें यौका जितना कियाविशेष। पूर्ण और विस्तृत वर्णन है उतना और संहिताओंमें नहों | यजुएटम (सं० क्लो० ) अयमेपाम तिशयेन यजुः । उत्कृष्टतम है। इन दोनोंकी भी बहुत सो शाखाएं हैं जिनमें थोड़ा यजुर्मन्त्र । बहुत पाठ-भेद है । अव तक यगुर्वेदकी जो संहिताएं मिली यजुष्टर (सं० क्लो०) अयमनयोरतिशयेन . यजुः । मध्यम हैं उनके नाम इस प्रकार हैं-काठक, फपिस्थल-कठ, | प्रकार यजुर्मन्त्र। मैत्रायणो और तैत्तिरीय । ये चारों कृष्ण यजुर्वेदकी हैं। | यजुष्टस् (सं० अध्य० ) यजुत् तसिल , पत्य, तस्य चट। शुक्ल या वाजसनेयीको काण्व और माध्यन्दिनी दो | यजुर्वेद, यजुर्वेदानुसार । शाखाएं है । पतंजलिके मतसे यजुर्वेदको १०१ शाखाएं यजुष्टा (सं० स्त्री० ) यजुपो भावः तल् टाप् । यजुष्टव, हैं; पर चरणव्यूहमें फेवल ८६ शाखाए दी हैं और वायु- यजुका भाव या धर्म। पुराणमें २३ शाखाएं गिनाई गई हैं। इसके संहिता | यजुष्पति (सं० पु०) यजुपां पतिः। विष्णु। भागमें ब्राह्मण और ब्राह्मणभागमें संहिता भी मिलती | यजुष्पात (सं० क्ली० ) एक प्रकारका यक्षपात्र । है। इस वेदमें अनेक ऐसे विधिमन्त्र भी है जिनका यजुष्मत् (सं० ति०) यागमन्त्रको क्रियासम्बन्धीय । अर्थ बहुत थोड़ा या कुछ भी नहीं ज्ञात होता। कुछ | यजुष्य ( स० त्रि०) यज्ञ-सम्बन्धी, यज्ञका। प्राथनाएं भी ऐसी है जो विलकुल अर्थरहित जान पड़ती | यजुस् (सं० क्लो०) इज्यतेऽ नेनेति यन् ( अतिवपियनीति । हैं। इसके कुछ मन्त्र ऐसे हैं. जिनसं सूचित होता| उण् २१११८) इति उसि। वेदविशेष, यजुवेद । है, कि उस समय लोगों में ब्रह्मक्षानकी बहुत कम चर्चा | यजुर्वेद और वेद शब्द देखो।