पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/४४८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

३४३ यज्ञ सव जगत्को आप्यायित करनेके लिये यज्ञवराहकी देह यजेत्” वर्गको कामना करके दर्शपूर्णमास-यज्ञ करे, यज्ञरूपमें परिणत हुई। ब्रह्मा, विष्णु और महेश्वर इस | इस विधानके अनुसार जो यज्ञ किया जाता है वह प्रकार यज्ञको सृष्टि करके सुवृत्त, कनक और घोरके | काम्य । 'यावजोवन अग्निहोत जुहोति' जब तक जीवन रहे, तब तक अग्निहोत्र यज्ञका अनुष्ठान करे । फलाकांछा- निकट आये। उन्होंने सुवृत्तादिके तीनों शरीरोंको एकत्र वर्जित हो जो इस प्रकारका यज्ञ किया जाता है उसे कर मुख वायु द्वारा परिपूर्ण कर दिया। ब्रह्माके सुवृत्त- को देहमें मुखवायु सञ्चारित करनेस दक्षिणाग्निको विष्णु नित्य कहते हैं । अतएव फलकामनाका त्याग कर केवल के कनककी देहमें करनेसे पञ्च वैतानभोजी गार्हपत्य, चित्तशुद्धिके लिये अवश्य कर्तव्य जान कर जो यज्ञानुः अग्निकी और महादेवके घोरको देहमें मुखवायु परिपूर्ण प्ठान किया जाता है उसीका नाम सात्त्विक यज्ञ है। करनेसे आहवनीय अग्निही उत्पत्ति हुई। बिजगद्व्यापो सात्त्विक प्रकृति के लोग इसी यक्षका अनुष्ठान करते है। यह तीनों अग्नि हो त्रिभुवनका मूलीभूत कारण हैं। यह ___ वर्गादि फलकामना करके वा अपने महत्त्वप्रकाशके तीनों अग्निदेव प्रतिदिन जहां रहते हैं, समस्त देवगण लिये जो यज्ञ किया जाता है उसे राजस-यज्ञ कहते हैं। अपने अपने अनुचरोंके साथ उस स्थान पर वास करते | मरने पर स्वर्ग मिलेगा, इहलोकमें सुख पाऊंगा, सभी है। यह तीनों अग्नि कल्याणका आधार और देवता- मुमो धार्मिक कहेंगे, इत्यादि भावमें अर्थात् इह और पार- स्वरूप हैं। जहां ये तीनों अग्निदेव मन्त्रादि द्वारा वुलाये लौकिक सुखके लिवे जो यज्ञ किया जाता है वह राजस- जाते हैं वहां धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष ये चारों वर्ग यज्ञ है। सात्विकगण यह यज्ञ नहीं करते। इस यज्ञमें विराज करते हैं। इसी अग्निसे यज्ञकिया सम्पन्न होती है । भी सभी प्रकारके शास्त्र-विधिनिषेध मान कर चलना ये तीनों अग्निदेव यज्ञके पुत्ररूपमें कल्पित हुए हैं। होता है। (कालिका३० ३० अ०) ____ जो यज्ञ शास्त्रविधि-वर्जित और अन्नदान विहीन है, पद्मपुराणके सृष्टिखण्डमें लिखा है, कि ब्रह्माने पहले। तथा जिस यछमें शास्त्रोक्त मन्त्र नहीं है, यथाविहित यज्ञानुष्ठान किया। ब्रह्मा, उद्गाता, होता और अध्वयु दक्षिणा नहीं है और जो श्रद्धापूर्वक नहीं किया जाता घे चारों यज्ञवाहक हुए। प्रत्येकके चार चार करके | उसे तामस-यज्ञ कहते हैं। जो यज्ञ शास्त्रविहिरा व्यव- परिवार है जो साकुल्यमे १६ ऋत्विज नामसे प्रसिद्ध हैं। स्थानुसार नहीं किया जाता. जिस यज्ञमें ब्राह्मणादिको (पद्म० सृष्टि० ३१) | अन्नदान नहीं होता, जिसमें उदात्तानुदात्त आदि स्वरों में पहले कहा जा चुका है, कि सभी प्रकारके यज्ञ मन्त्र उच्चारित जहीं होता, जिस यज्ञमें यथाविहित सात्विक, राजसिक और तामसिक भेदसे तीन प्रकार दक्षिणा न दिया जाता, जो यज्ञ ऋत्विक ब्राह्मणादिके के हैं। दोनों यज्ञोका विषय गीतामे इस प्रकार लिखा प्रति विद्वीप-वुद्धिसे अश्रद्धापूर्वक किया जाता है उसका है। जिनके जैसा स्वभाव है, वे उसी प्रकारके यज्ञका नाम तामस-यज्ञ है। क्या इस लोक, क्या परलोक, अनुष्ठान करते है। सात्त्विक प्रकृतिवाले सात्विक किसी भी समय इस तामस-यज्ञ द्वारा शुभ नहीं होता। यज्ञका, राजसिक राजसिक यज्ञका और तामसिक सात्त्विक वा राजसिकमेंसे कोई भी यह नहीं करते । तामसिक यज्ञका अनुष्ठान करते हैं। यह तामस-यज्ञ सदोंके लिये निन्दित है। (गीता० १७१६-११) त्रिविध-यशका विषय कहा गया। अधिकारभेदसे फलाभिसन्धिवर्जित हो अवश्य कर्तव्य जान.कर जो मनुष्य अपनी अपनो प्रकृतिके अनुसार यह यज्ञ किया शास्त्रविहित यज्ञ किया जाता है, उसे सात्त्विक-यज्ञ करते हैं। कहते हैं। इसका तात्पर्य यह है, कि दर्शपूर्णमास, चातु गीतामें लिखा है,-- स्यि और ज्योतिष्टोमादि यज्ञ काम्य और नित्यभेदसे | "गतसनस्य मुक्तस्य ज्ञाना वस्थितचेतसः। दो प्रकारके कहे गये हैं। "दर्शपूर्णमासाभ्यां वर्गकामो | यज्ञायाचरतः कर्मसमय प्रविलीयते॥ Vol. XVIII. 112