पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/४५१

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• ४४६ यज्ञ पापसे जीवके खर्गलाभकी सम्भावना नहीं। किन्तु यह । न करे, यह. सामान्य शास्त्र और अग्निषोमीय पशको पञ्चशूनाजनित पाप पञ्चयज्ञसे दूर होता है । वेदाध्ययन हिंसा करे, यह विशेष शास्त्र है। शास्त्रीय नियमानुसार और सन्ध्योपासनाफो नाम पियक्ष, अग्निहोत्रादिका अकसर विशेष-शास्त्रका विषय छोड़ कर और सभी देवयज्ञ, बलिवैश्वदेवका भूतयज्ञ, अन्नादि द्वारा अतिथि जगह सामान्य शास्त्रका विषय लिया जाता है। विशेष- सत्कारका नाम नृतज्ञ और श्राद्धतर्पणादिका नाम पितृः शास्त्र सामान्य-शास्त्रका वाधक है तथा सामान्य-शास्त्र यज्ञ है। जो प्रतिदिन इस पञ्चयज्ञका अनुष्ठान किये विशेष शास्त्र द्वारा वाधित होता है। किन्तु यथार्थमें विना भोजन करता है, उसका वह स्थान पापको ढेरके , ऐसा वाध्य-बाधक भाव नहीं हो सकता, अर्थात् विशप- समान है।" शास्त्र सामान्य-शास्त्रको वाधक या सामान्य-शास्त्र विशेष- अन्नसे शरीर, अन्न मेघको वृष्टिस, मेघ यज्ञसे और शास्त्र द्वारा वाधित नहीं हो सकता। क्योंकि, परस्पर यज्ञ कर्मसे उत्पन्न होता है। अग्निहोत्रादि सभी यज्ञ वेदसे विरोध नहीं होनेसे वाध्य वाधक भाव नहीं होता तथा वेद ब्रह्मसे उत्पन्न हुए हैं। सतपय सर्वंगत अविनाश अर्थात् एक दूसरेको वाधा नहीं दे सकती। यथार्थमें परब्रह्म धर्मरूप यज्ञादिमें सदा प्रतिष्ठित हैं। इसलिये विरोध विलकुल नहीं है । कारण, किसी भी प्राणोको सर्वोको यथाशास्त्र यज्ञादिका अनुष्ठान करना उचित है। : हिंसा न करे, इस निषेध वाक्यसे मालूम होता है, __ मत्स्यपुराणमें लिखा है, कि क्षत्रियोंको आरम्भयज्ञ, , ........ कि प्राणिहिंसा करनेसे मनुष्यको पापभागी होना पड़ता वैश्यको हविर्यज्ञ, शूदको परिचारयज्ञ और ब्राह्मणको जप- ___'अग्निपोमीय पशुकी हिंसा करे' यह वाक्य हम यज्ञ करना चाहिये। लोगोंको यह बतलाता है, कि अग्निषोमीह पशुकी हिंसा "भारम्भयज्ञाः क्षत्रा:स्युहविर्यशः विशः स्मृताः। यज्ञका उपकारक हैं वा सम्पादक । विना अग्निपोमीय परिचारयशाः शूद्रास्तु जपयशास्तु ब्राह्मयाः ||" पश-हिंसाके यज्ञ नहीं हो सकता, अतएव अग्निषोमीय (मत्स्य पु० ११८ अ०) पशुकी हिंसा द्वारा यज्ञसम्पन्न करना चाहिये । इन दोनों जिस यज्ञानुष्ठानसे जीवहिंसा होती है, वैसा यज्ञ | वाक्णमें कुछ भी विरोध नहीं हो सकता। क्योंकि, करनेसे अधर्म होता है। धर्मशास्त्र कहते हैं, कि यज्ञमें जो | यज्ञीय पशुहिंसा, यज्ञका सम्पादन और मनुष्यका प्रत्य- पशु वध किया जाता है और उससे जो हिसा होती है वाय.यह दोनों ही वाक्योंका निर्वाह करता है। अतएव उस वैधहिंसामें पाप नहीं होता। किन्तु सांख्यदर्शन यहां पर दोनों वाक्योंमें विरोध वा वाध्यवाधक भाव इसे स्वीकार नहीं करते, वे कहते हैं, कि इस चैधहिसा- नहीं हो सकता। शास्त्र में यदि ऐसा उपदेश रहता; कि में भो पाप होगा। इस हिंसाका विषय सांख्यमें इस अग्निपोमीय पशुहिंसासे मनुष्य के पाप नहीं होता, तो प्रकार आलोचित हुआ है,- विरोध और वाध्यवाधक भाव हो सकता था। कारण, पापका उत्पादन करना और नहीं करना परस्पर विरुद्ध शास्त्रादिष्ट पशु वधादि हिंसा करनेसे भी पाप होगा। सांख्योंका कहना है, "माहिंसात् सर्वा भूतानि" है। वह विरुद्ध दोनों धर्म एक पदार्थ में नहीं रह सकता। अर्थात् किसी भी प्राणोकी हिंसा न करे । कहनेका | अतएव सांख्याचार्यों ने सावित किया है, कि यज्ञमें जो वैध पशुवध है, वह भी पापजनक है। अतएव वैदिक- तात्पर्य यह कि हिंसा करनेसे ही पाप होगा । "अग्निः | यज्ञ करनेमें जैसा अधिक पुण्य होता है वैसा हिंसाजनित पोमीय पशुमालभेत" अग्निपोमयज्ञमें पशुवध करना पाप भी होता है।* चाहिये । इत्यादि विधि द्वारा यज्ञ सम्पादनके लिये पशु- हिसा कही गई है। इसका तात्पर्य यह कि विना पशु-

  • "नच 'माहिस्यात् सर्वा भवानीति' सामान्यशास्त्र विशेष- .

हिंसाके यज्ञ सम्पन्न नहीं होता, अतः उस हिंसा द्वारा या समाप्त करना चाहिये। किसी भी प्राणीकी हिंसा | शास्त्रेण अग्नीषोमीय पशुमालभेतेत्यनेन वाध्यत इति युक्त