पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/४५९

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यज्ञार्थ-यज्ञोपवीत यज्ञार्थ (सं० अध्य० ) यज्ञके निमित्त । गुण-शोतल, रुक्ष, गुरु, पित्त, कफ और अस्रनाशक, यज्ञाह ( स० त्रि०) यज्ञका उपयुक्त । मधुर, वर्णकर तथा व्रणका शोधन और रोपणकारक। यज्ञावयव (सं०नि० ) यज्ञ एव अवयवो यस्य । विष्णु । यज्ञाशन (सं० पु०) देवता । (भावप्र०) | यज्ञोपकरण ( स० क्लो० ) यज्ञस्य उपकरण। यज्ञका उप- यज्ञासाह (सं त्रि०) यज्ञसह, यज्ञकी धारयिता। करण, वह वस्तु जो यज्ञमें काम आती है। यज्ञिक (सं० पु० ) अनुकलितो यज्ञदत्तः (वढचो मनुष्य यज्ञोपवीत (स० क्लो०) यज्ञधृतं उपवीतं । यज्ञसूत्र, जनेऊ । नाम्नष्ठच वा । पा ५३३८ ) इति उच् (ठाजादावूई पर्याय-पवित्र, ब्रह्मसूत्र, द्विजायनी। (त्रिका०) यथाविहित द्वितीदचः। पा ५३२८३) इति प्रकृति द्वितीयादच ऊद्ध्वस्य | यज्ञ करके यह उपवीत पहनना होता है, इसीसे इसको लोपः। १ यज्ञदत्तक, वह पुत्र जो यज्ञके प्रसादस्वरूप | यज्ञोपवीत कहते हैं। मिला हो। २पलाशयक्ष, पलाशका पेड़। "पवित्रं यज्ञसूत्रश्च यज्ञोपवीतमित्यपि । यशिन् ( स० त्रि०) यज्ञ इनि । विष्णु। यशसतं तदेवोपबीतं स्यादक्षिणे भुजे॥ यज्ञिय (स' त्रि०) यज्ञमर्हति यज्ञ ( यज्ञविग्भ्यां घरवञ्चौ । उधृते वामवाहो तु प्राचीनावीतमप्यदः। पा ५॥११७१ ) इति घ। १ यज्ञकर्माह, यज्ञ करने योग्य । निवीतन्तु तदेव स्यांदूर्ध्ववक्षसि लम्बितम् ॥" २ यज्ञ की हितकर वस्तु । ( पु० ) ३ द्वापर युग। ४ (जटाघर) खदिर वृक्ष, खैरका पेड़।५ पलाश । यज्ञियदेश ( स० पु०) यज्ञियश्चासौ देशश्चेति । याग- यह वायें हाथके ऊपरसे दाहिने हाथकी ओर लटका करणोपयोगी देश, वह देश जिसमें यज्ञ करनेका | रहता है इसोसे इसका नाम उपवीत है। . विधान है। "ऊर्ध्वन्तु त्रिवृतं सुन सधवानिर्मित शनैः॥ यज्ञियपत्रक (सं० पु०) सितदर्भ, सफेद कुश। तन्तुत्रयमधोवृत्त यज्ञसूत्र विदुर्बुधाः ॥ यज्ञियशाला (स. स्त्री०) यज्ञिया शाला | यागमण्डप, त्रिगुणं तद्मन्थियुक्त' वेदप्रवरसम्मितम् । मज्ञगृह । शिरोधरानभिमध्यां पृष्ठाद्ध परिमायाकम् ॥ यजुर्विदां नाभिमितं सामगानामयं विधिः। यज्ञाय (सं० पु०) यज्ञ भवः यज्ञ (गहादिभ्यश्च । पा वामस्कन्धेन विधृतं यज्ञसूत्र फलप्रदम् ॥" ४१२।१३८) इति छ । १ उडम्वर वृक्ष,गूलरका पेड़। (नि.) (कल्किपु० ४ अ० यागसम्वन्धीय, यज्ञका। यज्ञोय ब्रह्मपादप (सपु०) यज्ञोयश्चासौ ब्रह्मपादश्चेति । तीन सूत्रोंको एक साथ लपेट कर यह बनाया जाता विकङ्कत वृक्ष, कंटकोका पेड़ । ( राजनि०) है। सघवाको ही यह वनाना चाहिये। विधवाका यज्ञेश्वर (सं० १०) यज्ञानामीश्वरः । विष्णु; यज्ञेश। बनाया हुआ यज्ञोपवीत नहीं पहनना चाहिये । उस सूत्र- यज्ञ श्वरार्य (स० पु०) निरुक्तोल्लिखित आचार्यभेद । को फिर तीन गुण करके वेदोक्त प्रवरके अनुसार अर्थात् , यज्ञश्वरी (स' स्त्री०) मन्त्रभेद। जिस गोत्रके लिये जितना प्रवर विदित है, उतनी ही यनेषु ( स० पु०) ब्राह्मणोक्त एक व्यक्ति । प्रन्थि देनी चाहिये। यदि प्रवरकी संख्या तीन हो, तो यशेट (सं० क्लो०) यज्ञे इष्ट । दीर्घरोहिषक तृण, रोहिस | प्रन्थिको सख्या भी तीन और यदि चार तो प्रन्थिको भी नामकी घास । ( राजनि०) चार संख्या होगी। यजुर्वेदियोंके यज्ञोपवीतको प्रमाण मस्तकसे नाभि तक तथा सामवेदियोंका बाएं कंधेसे यशोऽम्बर ( स० पु०) यज्ञोचितः उडुम्वरः। उडुम्वर | दहिने हाथके अंगूठे तक होगा। प्रन्थि दे कर निनोक्त वृक्ष, गूलरका पेड़। इस वृक्षको लकड़ीसे वज्ञकर्म होता | मन्त्र पढ़ करके इसे पहनना होता है। मन्त्र इस है इसीसे इसे यज्ञडुम्वर कहते हैं। पर्याय-हेमदुग्धो, | मत्रफल, यज्ञाङ्ग, हेमदुग्ध , उजुम्वर, जन्तुफल । इसका | प्रकार है-