पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/४६३

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४६ यज्ञोपयोत

ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीनों वर्णोंको मेखला | दैवकाय कर्तव्य भवेत् तदा तदैव धाय स्यादिति ।"

निवृत्ता होनी चाहिये । उस त्रिवृताको फिर तीन बार | ( गामिलगृह्मभाष्य २०१०३७) स्मृतिके मतले द्विजाति करके प्रन्थि देनों होगी। तीन, पांच वा सात बार | यदि यज्ञसूत्रहीन हों, तो उन्हें प्रायश्चित्त करना होता है। प्रन्थि दी जा सकती है अथवा प्रबरके संख्यानुसार अग्निपूजक पारसी लोग भी यज्ञोपवीत पहनते हैं। किसी प्रन्थिं देनेका विधान है। कोई कोई कहते हैं, कि ३, ५, यागयज्ञादि विशेष उत्सवमें वे स्त्री-पुरुष दोनों ही जनेक ७ इसका तात्पर्य प्रवरकी संख्याके सिवा और कुछ नहीं | पहना करते हैं। है। अर्थात् जिस गोलमें जितना प्रवर विहित है उतनो ___ गृह्यसूत्रको आलोचना करनेमे मालूम होता है, कि हो प्रन्थि देनी चाहिये। एक समय हिन्द-रमणियां भी यज्ञोपवीत पहनती थीं। . वैदिक युगसे ही यज्ञोपवीत पहननेकी प्रथा चली सामवेदीय गोभिल गृह्यसूत्रमें लिखा है- आतो है। किसी किसोका कहना है, कि वेदके ब्राह्मण "प्रावृतां यज्ञोपवीतिनीमभ्युदानयञ्जपेत् सोमोऽद- और उपनिपद्के समय यज्ञानुष्ठान या वैदिक उत्सव दद्गन्धर्वायेति पश्चादग्ने संवेष्टितं कटमेवं जातीय वाऽ- आदिमें ही जनसाधारण यज्ञसूत्र पहना करते थे। सभी न्यत् पदा प्रवर्तयन्ती वाचयेत् प्र मे पतियानः पन्थाः समय यज्ञसूत्र पहना जाता था। ऐसा बोध नहीं होता, । कल्पतामिति स्वयं जपेत् ।" ( १९-२१) अर्थात् वरन् जो हमेशा यक्षसूत्र पहना करते थे उनकी लोग वस्त्रागृता यज्ञोपवीतिनो कन्याको भावि-पति अपने सामने 'धर्मध्वजी' कह कर हंसी उडाते थे। शतपथब्राह्मणमें ला "सोमोऽददद् गन्धर्वाय" इत्यादि मन्त्र पढे तथा इसके बारेमें ऐसा लिखा है- अग्निकी वगलमें रखे हुए कर या ऐसे किसी आसनको ____ "प्रजापति वै भूतान्युपासीदन् । प्रजा वै भूतानि वि | वह कन्या पैरसे ठेलती हुई लाये । उसी समय इस भावी नो धेहि यथा जीवमेति ततो देवा यज्ञोपवीतिनो भूत्वा वधुको 'प्र मे मन्त्र पाठ करावे। पजुर्वेदीय पारस्कर दक्षिणां जान्वा च्योयासीदस्तानववीयशो वोऽन्नम गृह्यसूत्रमें "त्रिय उपनीता अनुपनीताश्च" इत्यादि 'ममृतत्वं व ऊर्जः सूर्यो वो ज्योतिरिति ॥१॥ अथैनं वचनमें उपनीत और अनुपनीत दोनों तरहकी त्रियोंका पितरः प्राचीनावीतिनः सव्यं जान्वाच्योपासीदस्तान- उल्लेख है। इसके सिवा गोभिलगृह्यसूत्रमें (५) चीनमामि-मासि चोऽशन स्वधा वो मनोजवो न | "कामः गृह्यऽग्नी पत्नी जुहुमात् सायंप्रात:मौ गृहाः पनी चन्द्रमा वो ज्योतिरिति ॥२॥ अथैनं मनुष्या प्रावृता उपस्थं गृह्य एषोऽग्निर्भवतीति ।" अर्थात् इस अग्निको गृह्य कृत्वोपासीदस्तातब्रवीत् साय प्रातत्वोऽशनं प्रजा वो और पत्नीको गृहा कहते हैं। इस कारण अगर पलोको मृत्युवे डग्निो उमोति-रिति ॥३" (शतपथना० २।४३१-३) इच्छा हो, तो शाम और सबेरे दोनों वख्त होम करना • उक्त प्रमाणसे जाना जाता है, कि प्रजापतिके पास चाहिये। इत्यादि प्रमाण द्वारा उपवीतके साथ साथ जानेके समय देवगण यज्ञोपवीती और पितृगण प्राचीना- स्त्रियोंको भी होम करनेका अधिकार दिया गया है। वीती हो कर गये थे। माधवाचार्यने पराशरसंहिताके भाष्यमें लिखा है- - कौषीतकी-ब्राह्मणोपनिषद में लिखा है- "द्विविधा स्त्रियो ब्रह्मवादिन्यः सद्यो वध्वश्च । तब "सर्वजिद्ध स्म कौषीतकि रुद्यन्ते मादित्यमुपतिष्ठते। । ब्रह्मवादिनीनां उपनयनं अम्मीन्धनं वेदाध्ययनं स्वगृहे यज्ञोपवीतं कृत्वोदकमानीय त्रिः प्रसिच्योदपत्रि॥" मिक्षा इति वधूनां तूपस्थिते विवाहे कथञ्चिदुपनयमं कृत्वा .. ' अर्थात् सर्वजित् कौषीतकि यज्ञोपवीत पहन कर विवाहः कार्यः।" अर्थात् स्त्रियाँ दो प्रकारकी हैं-ब्रह्म- सूर्य की उपासना करते थे। इस विषयमें पण्डित सत्य वादिनी और सद्योवधू । ब्रह्मवादिनियोंके उपनयन व्रत सामश्रमी ऐसा लिख गये है, "वस्तुतो वेदाध्यय-

  • मन्त्रबाहमण शक्षण

नायाचार्यसमीपे नयनमेवोपनयन यज्ञोपवीतधारणान्तु / दैवकार्यानुष्ठानार्थमेव सूत्रकारेण विहितमिति यदा यदैव' मन्त्रब्राह्मण १।११८ ।