पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/४६७

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यज्ञोपवीत वीरान्मा नो रुद्र भामितोवधी अनन्तर आचार्य ब्रह्मचारीके हृदयदेशके समीप हाथ- ईविष्मन्तः सदमित्या जवहामह ॥" | की ऊर्धाङ्गलिके रख कर निम्नोक्त मन्त्रका पाठ करें। (ऋक १।११४१८) | प्रजापति ऋषिवृहस्पतिर्देवता बिष्ट पछन्दो माणव- अनन्तर यज्ञीय भस्म अंगुष्ठ और कनिष्ठासे उठा | कस्य हृदयालम्भने विनियोगः।' कर तिलक लगाना होगा। "ओं वायुष जमदग्नेः" यह | "ओं मम व्रते हृदयं ते दधामि मम चित्तमनु चित्त ते अस्त पढ़ कर कपालमें "ओं कश्यपल्य घायुष', ओं अग- मम वाचमेकप्रतो जुवस्व वृहस्पतिष्टवा नियुनक्त महय' ।" स्त्यस्य लयायुष" इस मन्त्रसे नाभिमें, "ओं यह वानां वायुष, ओं तन्नो अस्तु वायुष" (शुक्लयजु ३६२ ।। __(आश्व० ग.. ११२११७) ___ तदनन्तर आचार्य इस मन्त्रसे वटुककी कमरमें मेखला इस मन्त्रसे गले और पीठमें तिलक लगाना होता है।। वांध दें। तदनन्तर मस्तकमें हाथ धो कर हाथले निम्नलिखित 'विश्वामित्र ऋषिर्मेखला देवता त्रिष्ट प्छन्दो मेखला मन्त्र पढ़ कर अग्निको प्रार्थना करनी चाहिये। परिघाने विनियोगः। ___"ओं गर्भ ऋषिः सारस्वताग्निदेवता अनुष्ट पछन्दः अग्निप्रार्थने विनियोगः। ओं चमेश्वरश्च मे यज्ञपतये "हयं दुरुक्तात् परिवाधमानावर पवित्र' पुनती म आगात् । नमः। यत्ते न्यूनं तस्मै त उपधत्ते अतिरिक्त तस्मै ते प्राणापानाभ्यां वलमाहरम्भी स्वसा देवी सुभगा मेखलेयम ॥" नमः। (मन्त्रब्राह्मण १।६।२७) 'स्वस्ति श्रद्धां यशःप्रज्ञां विद्यां धुद्धि श्रियं वलम् । "ओं मृतस्य गोप्जी तपसः परस्सीघ्नति रक्षः सहमाना भरातीः । सा मा समन्त मभि पयोंहि भद्रे धारस्ते मेखले मा रिषाम ||" आयुष्यां तेज: आरोग्यं देहि मे हव्यवाहन ॥" (मन्त्रब्राह्मण १।६।२5) ओं नमः, ओं नमः । इस मन्त्रसेमाणवकके केशपरिमाण सीधा पलास- वादमें ब्रह्मचारी दोनों जांध पृथ्वी पर रख कर गुरु- को इस मंत्रसे प्रणाम करे, अभिवादये श्री अमकदेव । दण्ड ले कर उसे धारण करो। शर्माणं भाः । "ओ स्वस्ति नो मिमीतेति ।" 'स्वस्त्यान य ऋषि- अनन्तर आचार्य, 'अधीहि भोः सावित्री।' ब्रह्मचारी | श्वेदेवा देवता त्रिष्टु पछन्दो दण्डधारणे विनियोगः।' वोले 'वदति भो अनुव्रतहि' ऐसा कहें। वादमें ब्रह्मचारी- “ओं स्वस्ति नो मिमीतामश्विना भगः स्वस्ति देव्यदितिरनर्गणः । का हाथ पकड़ कर उत्तरीय वस्त्र द्वारा आच्छादन करें। स्वस्ति पूषा असुरो दधातु नः स्वस्ति द्यावापृथिवी सुचेतना ॥" और तब यह मन्त्र पढ़ावे । (ऋक ५५२११) 'विश्वामित्र पिर्गायत्रीच्छन्दः सविता देवता अनन्तर गुरु वटुकको इस प्रकार प्रश्न पूछे। 'ब्रह्म- सावित्रीजपे विनियोगः।' चार्यसि' इस पर बटुक उत्तर दे-'ब्रह्मचार्यस्मि' । 'अपो- "ओं भूभूवः ख। तत् सचितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य शानं कर्मकुरु' वटुक करोमि' ऐसा कह 'मा दिवा स्वाप- धीमहि । धियो योनः प्रचोदयात् ओं। (ऋक् श६२।१०) सो' 'म दिवा स्वपिमि' मूत्रपुरीषादौ मृद्भिः शौचावमन- नञ्च कुरु' 'करोमि' । 'आचार्याधोनो वेदमधीष्व' 'अधीरुपे' 'ओं तत्सवितुर्वरेण्यं' यह प्रथमपाद, 'भगोदेवस्य 'ब्रह्मचर्य चर' 'परिष्यामि'। 'सायंप्रातर्भिक्षेत "वाढ़" धीमहि' वह द्वितीयपाद, 'धियो यो नः प्रचोदयात्' यह 'सायं प्रातः समिधमादध्यात्' 'वाढ़'। तृतीयपाद इस प्रकार सावित्री पाठ करावें। पादरूपसे ( आश्वगृहय ११२२१५६) यदि सावित्रीपाठ न हो सके तो पदको आधा कर पहले इस प्रकार वटुक भाचार्य के प्रश्नोंका उत्तर दे । अन- पाठ, पीछे समस्त गायत्रीका पाठ करावें। ___ओं भूः ओं भुवः ओ' स्वः' यह मन्त्र भी पढ़ाना न्तर ब्रह्मचारी हाथसे जल स्पर्श कर बद्धाञ्जलि हो यह होती है। मन्त्र पढ़े।