पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/४६८

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यज्ञोपवीत ४६५ "ओं त्वं व्रतानां व्रतपतिरसि सावित्री द्वादशरात्रश्च- गायत्रीछन्दः सविता देवता चरुहोमे विनियोगः ।. "ओं रिष्यामि तच्छकेय तन्मेराध्यासं। तत्सवितुर्वरेण्यं भगोंदेवस्य धीमहि । धियो योनः प्रचो- वादमें ब्रह्मचारी पासको हाधमें ले कर भिक्षा मांगे। दयात्" वाहा ( ऋक् ॥८॥१) इदं सवित्रे नमः। ओं पहले मातासे 'भवति ! भिक्षा देहि' कह कर भिक्षा मांगे। ऋषिभ्यः खाहा । इद ऋषिभ्यो नमः । इस प्रकार माता पहले उसके हाथमें थोड़ा जल डाल कर भिक्षा दे। चरुहोम करे। पीछे पूर्णाहुति समाप्त करके दक्षिणा माताके वाद मातृवन्धु स्त्रियोंसे भिक्षा मांगनी होती है। देवे। अनन्तर ब्रह्मचारो ब्राह्मणादि भोजनके बाद परि- अनन्तर 'भवत् ! भिक्षां देहि' यह पढ़ कर पिता और समूहन और पर्युक्षण फर्म कर क्षारलवणवर्जित अन्म पितृबन्धु अन्यान्य पुरुषोंसे भिक्षा ले। ब्रह्मचारी भिक्षा- भोजन करे। में जो कुछ वस्तु मिले, उसे ओचार्यको समर्पण करे। मेधाजनन ।-उपनयनके दो दिन बाद तथा समाव- आचार्य 'उपयुज्यतां' यह अनुज्ञा दें। बाद उसके ब्रह्म- सनके पहले मेधाजनन करना होता है। शुभदिनमें चारी मध्याह्न सन्ध्या उपासना कर दिन भर वहीं ठहरे। एक मूलका पलाश, उसके अभावमें कुशस्तम्भ ला कर आचार्य प्रायश्चित्तहोम तथा खिष्टकृत होम समाप्त कर ! पूर्व वा पश्चिमकी ओर रोपना होगा। 'ओं अद्योत्यादि ब्रह्मकर्म प्रतिष्टाथै दक्षिणा देवें। मेधाजननं करिष्ये।' इस प्रकार संकल्प करके पलाश वा ___ अमन्तर सूर्य डूयनेके बाद ब्रह्मोदन करना होता है।। कुशमूलको अलंकृत कर अपूपादि द्वारा उसकी अभ्य- सूर्यास्तके वाद ब्रह्मवारी सायं सन्ध्याकी उपासना कर र्चना करे और तोन वार प्रदक्षिण दे । ब्रह्मचारी उपलेपनाद्याग्नि प्रतिष्ठापनान्त कर्म करे। वाद उसके | इसको जलसे सीचे, पीछे आचार्य ब्रह्मचारीको.यह आचार्य प्राणको संवत कर 'अनुप्रवचनीय होमं तदङ्ग- मन्त्र पढ़ावे। मन्याधानं करिष्ये' इस प्रकार संकल्प कर देवतापरि- प्रहार्थ हो समिध द्वारा निम्मोक्त मन्त्रसे प्रजापति होम "अग्ने सुश्रवः सुश्रवा असि यथा त्वमग्ने सुश्रवः सुश्रया अस्येवमां सुश्रवः सौश्रक्सं कुरु। यथात्वं ___ 'ओ भूर्भुवः नः खाहा' पीछे इस अन्नादि अग्निमें देवानां यज्ञस्य निधिपा अस्येवमहं मनुष्याणां वेदस्य 'अम्मि चेदसमिध्मेन प्रजापति प्रजापतिञ्चाघोरदेवते 'निधिो भूयासं।" ( आश्वलायन-म हयसूत्र १।२२।१६.) आज्येन सदसम्पतिसवितृवयः प्रधानदेवताश्चरुद्रव्येण ___इस मन्त्रको तीन बार जप कर तथा उसे पढ़ कर खिएकृतमिध्मसन्नऽनेन एवं विश्वान् देवान् संसाधेण तीन बार प्रदक्षिण करना होगा । अनन्तर पूर्वधूत मेखला, सर्वप्रायश्चित्तदेयता अग्नि देवान् विष्णु अग्नि वायु अजिन और वास यहाँ पर छोड़ दे और तव निम्नोक्त सूर्य प्रजापतिञ्च ज्ञाताज्ञातदोपनिहरणार्थमनाज्ञातमिति मन्त्र पढ़ कर अन्य वस्त्रादि पहने। . तिश्र आज्यद्रव्येण कार्मणा अद्योऽहं यक्ष्ये।' "ओं युवा सुवासा परिवीत आगात् इस प्रकार अग्मिका ध्यान कर चरुस्थाली, प्रोक्षणी- सउ श्रेयान् भवति जायमानः। पान, श्रुव, स्कु इस सव पातोंको यथास्थान रख रु. तं धीरास: कवच उन्मयन्ति पाकके नियमानुसार चरूपाक करना होगा। खाध्यो मनसा देवयन्तः ॥" (ऋक् ३३४) __ वाद उसके आचार्य भाज्यसंस्कारादि आरम्भ कर अनन्तर ब्रह्मचारों वेदका अध्ययन करे। शेप पर्षन्त 'मेधातिथिः कण्य ऋषिर्गायतीछन्दः सद- वेदारम्भ। --शुभदिनमे आचार्य यथाविधान संकल्प सम्पत्तिर्देवता चरुहोमे विनियोगः।' “ओं सदसम्पतिः। करके उपलेपादि अघोरान्स होमादि शेष करें। पीछे नीचे मद्भुतं प्रियमिन्दस्व काम्यं । सनि मेधामियाशियं लिखे प्रकारसे होम करना होगा। ऋग्वेदके आरम्भमें खाहा।" (ऋक् १।१८६ ) इदं सदसम्पतये नमः। तत् 'ओं पृथिव्यै स्वाहा, इद' पृथिव्यै । ओं अग्नये स्वाहा, सवितुरित्यस्य मध्यभोगाथिनो धियो विश्वामित्र ऋषि- इदमग्नये । ओं ब्रह्मणे खाहा, इद ब्रह्मणे। ओं प्रजापतये । Vol, XVIII, 117 करे।