पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/४७१

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यज्ञोपवीत - इसके बाद माणवक अग्निके उत्तर पूरवको ओर मुंह । ओं प्राणाश्च आप्यायन्तां, तथा एककशश्चक्षषो, चनश्व करके बेठे और दाहिने हाथसे गुरुका दाहिना पांव तथा / मे आप्यायतां । तथा एकैकशः कर्णो, ओं श्रोतश्च आया- वायें हाथ से बायाँ पाय पकड़े। इस समय गुरु उसे | यतां तथा सर्वाङ्ग, ओं यशोचलञ्च आप्यावतां । बटुक पीछे गायत्री दें। यह गायनी पादावच्छेद द्वारा पढ़ावें। अनामिका अंगुलिसे भस्मका तिलक करे। 'पहले “ओं भूर्भुवः स्व” ( यज : ३६।३) पीछे "ओं तत् (ललाटम)-"ओं कश्यपस्य लगायुषं ।” (प्रोवामे)- सवितुर्वरेण्यं भगो देवस्य धीमहि ।" (३३५) उसके "ओं जामदग्नेस्त्रयायुषं । ( दाक्षिणांशमे )- "ओं वाद "ओं धियो यो नः प्रचोदयात् ओं" ( ३।३५ ) इस यद्देवानां घायुषं।" ( हृदयमे )-"तन्मे अस्तु प्रकार गायत्री दें। पोछे समन्न गायत्री पाठ करावें। बघायुषं। (शुक्ल यजु, ३०६२) __ अनन्तर समिदाधान करना होगा। पहले माण- तदनन्तर माणवक पहले मातासे 'ओं भवति ! भिक्षा वक्र दाहिने हाथसे इस मन्त्र द्वारा अग्निपरिसमूहम करे।। देहि' यह कह कर भिक्षा मांगे। उसके बाद मातृवन्धु मन्त्र-"ओं अग्ने सुश्रुवः सुश्रवसं मा कुरु, यथा,- दूसरी दूसरी स्त्रियोंसे भिक्षाके लिये प्रार्थना करे। 'यो त्वमग्ने सुश्रवः सुश्रवा असि, एव मां सुश्रवः सौश्रवसं | भवन् ! भिक्षा देहि' यह कह कर पितासे पीछे पितवन्धुओं मा कुरु । यथा-त्वमग्ने देवानां यज्ञस्य निधियो- से भिक्षा ले। इस भिक्षासे जो ट्रष्य प्राप्त हो, वह ऽस्येचमहं मनुष्याणां वेदस्य निधिपो भूयास ।" आचार्यको दे। गुरु शिष्यको शान्ति और आशीर्वाद (पारस्करग हयसू० २।४।२) आदि दे। उसके बाद माणवक जल द्वारा ईशानकोणसे दक्षि- ब्रह्मचारी मौन हो कर सारा दिन वहां बैठा रहे। णावर्तमें अग्निपयुक्षण फरे। पोछे उपस्थित हो कर वादमें सायं सन्ध्या कर पूर्ववत् समिदाधान और अक्षार- निम्न मन्त्रसे एक समिध आधान करे। मन्त्र-"ओं | लवणयुक्त हविष्य भोजन करे। अग्नये समिध माहापं वृहते जातवेदसे, यथा त्वमग्ने वेदारम्भ | --उपनयन के बाद विशुद्ध दिनमें वृद्धि- समिधा समिध्यसि । स्वमहमायुपा मेधया वर्चसा प्रजया श्राद्धादि किये जाने पर भाचार्य वटुकको अपने पास पशुभि ब्रह्मवर्चसेन समिन्धे जीवपुत्रो ममाचार्यो मेधा- विठावे और अग्निको स्थापना करें। (आज कल यह घ्यहमसान्यगिराकरिष्णुयशस्वी तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्यन्नादो उपनयनके दिन ही हुआ करता है।) भूयासं स्वाहा।" ( पारस्करग हयस० २।४।३ ) भाचार्य यथाविधि अग्निस्थापनके बाद भाधार- तव. परिसमूहनादि क्रमसे अपर दोनों समिधोंको | आज्यभाग अग्निमे होम करके 'अग्मे त्वं समुद्भवनमासि' अग्निमें आहुति दे। दोनों हाथोंसे अग्निमें प्रतापित तथा इस प्रकार समुद्भव नामक अग्निको स्थापना और उस- • अपना मुख निम्नोक्त मन्त्र पाठ कर मार्जना करे । को पूजा कर घेदाहुति होम करें। 'ओं पृथिव्यौ वाहा, मन्त्र-"ओं तनूपा अग्नेऽसि तन्वं मे पाहि। आयु | इट थियो, ओं अग्नये स्वाहा इदमग्मये, इति ऋग्वेदे। अग्नेऽस्यायुमें देहि । वर्चादा अग्नेऽसि वर्गों मे देहि, 'ओं अन्तरीक्षाय स्वाहा, इदमन्तरीक्षाय, ओं वायवे वाहा, अग्ने यन्मे तन्वा ऊनं तन्मे आपृण ।" इदं वायवे।' इति यजुर्वेदे । 'ओं दिवे वाहा, इदं दिघे, (शुक्ल यजु, ३३१७) | आंसूर्याय स्वाहा, इदं सूर्याय ।' इति सामवेदे। 'ओं • 'ओं मेधां मे देवः सविता आधातु मेघां मे देवी | दिगभ्य खोहा, इदं दिग्भ्यः। में चन्द्रमसे माहा, इदं चन्द्रमसे' इत्यथर्ववेदे। मरस्पती आदधातु, मेधामश्विनी देवा वाधसा पुष्करः | 'स्त्रजौ।' (पारस्करग हय २।२।८) ___ 'ओं ब्रह्मणे स्वाहा, इदं ब्रह्मणे, ओं छन्दोग्यः स्वाहा ' 'ओ.अङ्गानि मे आप्यायन्तां तथा मुखं ओं वाक्च | इदं छन्दोभ्यः। ओं प्रजापतये स्वाहा, इदं प्रजापतये। ओं देवेभ्यः स्वाहा, इदं देवेभ्यः। ओं ऋषिभ्या वाहा, आप्यायतां नासिके एकैकशः ओं नासिकाच आप्ययतां