पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/४७४

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यज्ञो.वोत ४७५ अनन्तर आचार्य इस मबसे माणवकको सम्बोधन । पीछे माणवक आचार्यमें उपसन्न अर्थात् खूब नज- करे- दोक जा कर बैठे। 'प्रजापति पिर्जगतोच्छन्दो ब्रह्मचारी देवता उप- ____ 'प्रजापतिपिराचार्यो देवता आचार्गमन्त्रणे विनि. नयने ब्रह्मचारिसम्बोधने विनियोगः । "ओं ब्रह्मचार्य सौ" | योगः' "नों अघोहि भोः सावित्री।" आचार्यके इस प्रकार ( म०मा० १।६।२५) इस प्रकार सम्बोधन करनेके बाद प्रश्न करने पर माणवक “मे भवाननुबवीतु" ऐसा कहे। ब्रह्मचारोका नाम लेवें। अनन्तर आचार्य सम्बोधित अनन्तर आचार्य पासमें बैठे हुए माणवकको पाद पाद ब्रह्मचारोको निम्न मन्त्रसे प्रेरण करें। और पीछे आध आध और उसके बाद समस्त गायत्रीका प्रजापतिषि ब्रह्मचारी देवता उपनयने ब्रह्मचारी अध्यापन करे। ध्ये विनियोगः।" ओं समिधमाधेहि। ओं अपोशानं "विश्वामित्रऋषिर्गायत्रोछन्दः सविता देवता जपो- कर्म कुरु। ओं मा दिवा खाप्सीः ।” (म-वा० श६।२६) | पनयने विनियोगः ।" “ओं तत् सवितुरेण्यं” यह ब्रह्मचारी 'गढ़म्' कहे। प्रथमपाद पाछे “आं भर्गो देवस्य धीमहि" यह द्वितीय पीछे ब्रह्मचारीको कौपीन पहनना होता है। इसके | पाद, "ओं तत्सवितुरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि" 'बाद आचार्य अग्निके उत्तर जाय और उदगम कुश पर यह पूर्वाद्ध, पोछे “ओ धियो योनः प्रचोदयात्" यह पूरवको ओर मुंह कर वैठे। अनन्तर माणवक दाहिनी उत्तराद्ध, अनन्तर “ओं तत् सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य जाँघ गिरा कर उदगम कुश पर आचार्यको ओर मुंह धोमहि। धियो योनः प्रचोदयात् ।। (मत्रा० श६।२६) करके बैठे। पीछे आचार्य माणवकको त्रिप्रदक्षिणा इस पूर्ण गायनाका तीन वार पाठ करावें। इसके बाद त्रिवृता मुञ्जमेखला पहना कर निम्नलिखित मन्त्र दो वार | आचार्य माणवकको महाव्याहृति पृथक् पृथक् तथा पढ़ावें। ओङ्कार-पूर्वक ओङ्कारान्त और ओङ्कार पुटित करके 'प्रजापति षिस्त्रिष्टुपच्छन्दो मेखला देवता उपनयने पढ़ावें। मेखला-परिधापने विनियोगः। ___ यथा--'प्रजापति ऋषिर्गायत्री छन्दो अग्निर्देवता "मों इयं दुरुक्तात् परिवाघमाना | महाव्याहृति पाठे विनियोगः । ओं भूः। प्रजापति वर्ण पवितं पुनती म आगात् । ऋपिरुणिकच्छन्दोवायुद्देवता महाव्याहृति पाठे विनि- प्राणापानाभ्यां बलमारहन्ती खसा देवी सुभगा मेखलेयं ॥ योगः। ओं भुवः। प्रजापति ऋषिरनष्टुपच्छन्दः सूर्यो ओं मृतस्य गोपत्नी तपसः परस्त्री देवता महाव्याहृतिपाठे विनियोगः। ओं स्वः।' अन- न्तर आचार्य माणवकको सप्रणवध्याहृतिक तथा प्रणवान्त घ्नती रक्षः सहमाना अरातीः । गायत्रीको अध्यापना करावें। सा मा समन्तममि पथ्यहि भद्रे धारम्मे मेखले मा रिषाम् ॥"(म०ब्रा० १।६।२७ २८) ___इसके वाद आचार्य माणवकके परिमाणानुसार बेल अनन्तर भाचार्य यज्ञोपवीत कृष्णसाराजिनके सहित या पलाशका एक दण्ड उसे दे कर यह मन्त्र पढ़ावें। . माणवकको यह मन्त्र पढ कर पहनावें। ____ 'प्रजापतिऋषिः पङ्क्तिछन्दो दण्डाग्नी देवते उप- 'प्रजापतिऋषिर्गायत्रीच्छन्दो विश्वे देवा देवता उप- नयने माणवक दण्डाणे विनियोगः। नयने यज्ञोपवीतदाने विनियोगः। “ओं यज्ञोपवीतमसि ____ 'ओं सुश्रवः सुअवसं मा कुरु यथा त्वमग्ने सुशवः सुशवाः । यज्ञस्य त्वोपवीतेनोपनेह्यामि ।' 'प्रजापति ऋषिः ___ देवेष्वेवमहं सुशूवः सुशवा बाह्मणेषु भूयास ॥" शक्करोच्छन्दोऽजिनं देवता उपनयने अजिनपरिधापने (म०३० १२६३१) विनियोगः' “ओं मित्रस्य चक्षुर्धारुणं वलीयस्तेजो यशस्वी अनन्तर ब्रह्मचारी दण्ड ग्रहण कर भिक्षा मांगे। स्थविरं समृद्ध' । अनाहनस्य वसनं जरिष्णुपरोद। पहले माताके निकट भिक्षा मांगनी होगी। मातासे इस वाज्येजिनं दधेयं । प्रकार कहे, 'भवति भिक्षां देहि' कह कर भिक्षा मांगे ।