पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/४७५

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४७३ यज्ञोपवोत दण्डानमें भिक्षाकी एक थैली रहेगी। माता पहले यथा- } पथ्युक्षणोपक्रम दक्षिण-पश्चिम तथा उत्तरक्रमसे उदका- साध्य भिक्षा दे। यह भिक्षा पाने पर माणवक 'स्वस्ति' । अलि सेक करे। यह वाक्य कहे। फिर मातृवन्धु तथा अन्यान्य स्त्रियों के निकट पूर्वोक्तरूपले भिक्षा मांगे। अनन्तर ब्रह्मचारी 'अमुकगोत्रः श्रोअमुकदेवशर्मा- है भोऽभिवादये। इस प्रकार अग्निको अभिवादन कर प्रकार नियोंसे भिक्षा ग्रहण कर पिताके निकट 'ओं क्षमस्व' से उसका परित्याग करे। संध्याके बाद भिक्षा मांगने जाय और 'भवन भिन्नां देहि' इस प्रकार भिक्षालब्ध अन्नको क्षारलवण वर्जन कर तथा सघ्रत प्रार्थना करे। पिताके भिक्षा देने पर ब्रह्मचारी स्वस्ति । चरुशेषको उदक द्वारा अभ्युक्षण कर 'ओं अमृतोपस्तरण- कह कर उसे ग्रहण करे। इसके बाद पितृवन्धु आदि | मसि स्वाहा' इस मन्त्रसे अपोशान करे । पोछे अन्यान्य पुरुषोंसे भिक्षा ग्रहण करनी होगी। भिक्षामें ! मध्यमा, अनामिका और अगुष्ठ इन तीन अंगुलियोंसे जो कुछ मिले वह आचार्यको दे दे। अन्न ग्रहण कर 'ओं प्राणाय स्वाहा, 'ओं अपानाय इसके बाद आचार्य पहलेको तरह समस्त महाव्या- स्वाहा, ओ समानाय स्वाहा, ओं उदानाय स्वाहा, ओं हति होम करके प्रादेशप्रमाण घृतात समिधकी अग्निमें व्यानाय स्वाहा।' इस प्रकार पश्चाहुति द्वारा अन्नको आहुति दे और शाट्यायन-होमादि वामदेष्य गानान्त भूमि पर निक्षेप करे । याद उसके भोजनपानको उदीच्च कर्म समाप्त करें। इस समय यदि पिता आचार्य, वायें हाथसे पकड़ कर वाग्यत हो भोजन करने लगे। हो, तो कर्म करानेवाले ब्राह्मणको दक्षिणा देनी होगी भोजन कर चुकने पर 'ओं अमृतपिधानमसि स्वाहा ।' और यदि अन्य व्यक्ति आचार्य वमे, तो उन्हें भी दक्षिणा कह कर फिरसे अपोशान करके आचमन करे। देनी होती है। यह अग्निकाय समावर्तन पर्यन्त प्रतिदिन सुबह और ब्रह्मचारीको इस समय सूर्यास्त पर्यन्त वागयत हो। शाम दोनो समय करना होता है। भोजन यावलोवन कर रहना पड़ेगा। इसके बाद सम्ध्याकालमें सन्ध्या इसी नियमसे करना होगा। उपासना करके समुद्भव अग्निसंस्थापन करे। पीछे यज्ञोपवीतके चौथे दिन सावित्री-होम करनेका 'ओं इहैवायमितरो जातवदा देवेभ्या हव्यं वहत प्रजा-1 विधान है। नन्' यह मन्त्र जप कर दाहिनी जांघ जमीन पर गिरावे। अथर्ववेदीय उपनयन पद्धति । वादमे दक्षिण-पश्चिम और उत्तर क्रमसे उदकाञ्जलि सेक अथर्ववेदीय कौशिकसूत्न, दारिलकृत तद्भाष्य, साय- तथा अग्निपय्युक्षण कर समिध हाम करना होगा। पहले प्रादेशप्रमाण घतात तोन समिध ग्रहण कर पहले णाचार्यकृत अथर्वसंहिताभाष्य और केशवकृत अथर्व- और तीसरे समिधको तुष्णीम्भावमे आहुति दे। केवल पद्धतिक अनुसार अथव्ववेदीय उपनयनपद्धति लिखी मध्य समिधको निम्नलिखित मन्त्रसे आइति देनी जाता है। होगी। उपनयनके पूर्व दिन माणवकके पिनादि संयत हो मन्त यथा- कर रहें और उपनयनके दिन सबेरे प्रातःकत्यादि करके "नापतिभूषिरमिदेवता सायमनौ समिद्दाले विनियोगः ।" स्वस्ति-वाचन और सङ्कल्प करें। इसके बाद गौप्योदि "ओं भग्नये समिधमाहार्ष वृहसे जातवेदसे। यथा- षोडश-मातृकाकी पूजा और वृद्धिश्राद्धादि करके ब्राह्मण स्वमग्मे समिधा समिधल्येष महमायुषा मेधा वर्चस्सा और माणक्कको खिलावे । उपनयन-क्रियामें पहले प्रजया पशुभिह्मवर्चसेन धनेनान्ना समेधिषीय माणवकका क्षौरकर्म करना होता है। क्षौरकर्म करनेके स्वाहा । लिये सामने एक जलपूर्ण पान रख निम्नोक्त मन्त्रसे इसके बाद कर्मशेषोक्त विधि द्वारा फिरसे अग्नि-। उसको अभिमन्तित कर लेना होगा।