पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/४७६

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४७३ यज्ञोपवीत "आयगमनत् सविता चुरेणोष्योन वराच उदके नहि। । नाभिदेश संस्पर्श कर निम्नोंक सभी मन्त्र जप करें। आदित्या रुद्रा बसव उदन्तु सचेतसः ____ "अग्निन् वसु दप्सयो धारयन्त्विन्द्रः पूषा वरुणा सोमस्य राज्ञो वपत प्रचेतसः ॥" (अथर्व० ६६८।१) मिलो अग्निः । इममादित्या उत विश्वे च देवा उत्तर- अनन्तर 'आयमगन्' सिर्फ इतना ही कह कर क्षर- स्मिन् ज्योतिषि धारयन्तु" ( अथर्व श६१) मार्जन करे। "उष्णेन वाचो" इस मन्त्रांशको उच्चारण | "विश्वे देवा वसवो रक्षतेममुतादिल्या जागृत यूच- कर क्षौर जलसे अनुमन्त्रित करे। "आदित्या रुद्रा" यह मस्मिन् । पढ़ कर माणवकके मस्तकको गरम जलसे धो डाले। मेमं सनामिरुत वान्यनामि में प्रापत् पौरुषोयो पीछे 'सोमस्य यज्ञो' मन्त्रपाद तथा वधोया" (अथर्व ० १२३०११) "येन वपत् सविता क्षुरेण सोममस्य राज्ञो वरुयास्य विद्वान् । ____"मा यातु मिल ऋतुभिः कल्पमानः सवेशयन् तेन ब्रह्मायो वपतेदमस्य गोमानश्ववानयमस्तु प्रजावान ॥" पृथ्वीमुस्त्रियाभिः । अथास्यभ्य वरुणो वायुर्राग्नि हद्- (अथर्व सार) राष्ट्र संवेश्यं दधातु ।" (३।८।१) यह मन्त्र पढ़ कर माणवकको दर्भशिखाको छोड़ कर ____ “अमुत्नभूयादधि यद् यमस्य वृहस्पते रभिशस्तेर- समूचा शिर मुण्डन कर दे। मुञ्चः । प्रत्यौहतामश्विना मृत्युमस्मदेवा नामग्ने अनन्तर पूरवको और बैठ कर अग्निस्थापन करना | मिवजा शचोमि" (१५५१) होता है। यथाविधि संस्थापित अग्निके सामने ___ "आ रभस्मामृतस्य श्नष्टिमच्छिमद्य मानाजरदप्टिर- उष्णोदकके साथ शान्त्युदकको प्रदक्षिणक्रमसे संस्थापन | स्तुते । असुत आयु पुनरा भरामि रजस्तमो मोप गामा करके आचार्य वहां यशोय सभी उपकरणादि लावें। मेष्टाः ।" (अथर्व० ८२।११) क्षौरकर्मके वाद आचार्य माणवकसे 'ब्रह्मवयंमागममुप ___"प्राणेन त्वा द्विपदां चतुष्पदा मग्निमिव जातमभि मानयस्व" ऐसा कहने के लिये कहे। ब्रह्मचारीके ऐसा संधमामि । कहने पर आचार्य फिरसे उसको पूर्छ, 'को नामासि नमस्ते मृत्यो चक्षषे नमः प्राणाय ते करमा।" कि गोत्र इत्यसाविति यथानामगोते भवस्तथा प्रव हि ।' (८।२।४) ब्रह्मचारी उत्तर दे. "अमुक शर्मनामाहं अमुकगोत्रोऽह "विपासहि" इत्यादि (११।४।१) अमुकप्रवरोऽहम् ।" यदि आचार्य कार्यामें जल्दी करें फिर भी यदि इसके बाद ब्रह्मचारी फिरले आचार्यसे कहे "आर्षेयं । उन्हें प्रकृष्ट कार्य शक्ति रहे, तो आचार्य गणस्थानमें मा कृत्वा वन्धुमन्तमुपनय ।" पृॉक 'आचातमित्र' इत्यादि (११२४३ ) अहं मन्त्रको आचार्य उत्तर दें, "आय त्वा कृत्वा वन्धुमन्यमुप- जप करे। अनन्तर ससिः । (४।३०) इत्यादि मन्त्र नयामि" आचार्य ब्रह्मचार को एक एक पान पढावे । पीछे इसके बाद आचार्या निम्नोक्त मन्त्रसे ब्रह्मचारीको आचार्य ब्रह्मचारीको आच्छादित करके तीन वार प्राणा- अञ्जलिमें जल दें, "भों भूर्भुवः स्व जनदोम् ।" ब्रह्मचारी याम करे और जलके वरतनमें वत्सतरी (बछिया)का वह उदकाञ्जलि सूर्याको प्रदान करे। अनन्तर आचार्य मुख दिखा कर निम्नोक्त मन्त्रले उसे उत्सर्ग करे- के ब्रह्मचारोका दाहिना हाथ पकड़ने पर ब्रह्मचारी "एय "समिन्द्र नो मनसा ने गोभिः सं सूरिभिह- म आदित्य पुतस्तन्मे गोपायस्व' यह मन्त्र पढ़ कर रिवनत्सं स्वस्त्या। सूर्य दर्शन करे। संब्राह्मण देव देवहितं यदस्ति सं देवानां सुमनौ इसके बाद आचार्य बाहुगृहीत ब्रह्मचारीको "अप- यज्ञिया नाम ॥' ( अथर्व ७११०२२) क्रामन् पौरुषेयावृणान"- (को०स० ४६ ) इस मन्त्रसे "सं वळसा पयंसा सं तनूभिर गन्महि पूर्वाकी ओर विठावें और दहिने हायसे ब्रह्मचारीका | मनसा सं शिवेन कृणो। Vol. XVIII 119