पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/४७७

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४७४ यज्ञोपवीत स्वष्टा नोयन वरीयः कृष्णोत्वनु नो माष्टु । वायो तपते। सूय व्रतपते । चन्द्र व्रतपते । आपो व्रत तर यद विरिष्टम" (६५४३) पत्ल्यो देवा व्रतपतयो। वेदा व्रतपतयो। व्रतानां व्रत- अनन्तर ब्रह्मचारी निम्नोक्त मन्त्रसे भद्रमुजाको नो . पतयो व्रतमचारिषं तदशकं तत्समाप्त तन्मेराद्ध तन्मे हुई मेखला पहने। मन्त्र इस प्रकार है-- समृद्ध तन्मे मा व्यनशतेन राद्धाऽस्मि तदा प्रयोमा "श्रद्धया दुहिता तपसोधि जाता श्वस ऋषीणां भूत- तदुपाकरोति वतेभ्यो व्रतपतिभ्यः स्वाहा ।" कृतां वभूध। (कौशिकस० ५६७) "सानो मोखले यतिमा धेहि तपइन्द्रियञ्च" अनन्तर आचार्य मेखला पहने हुए मह्मचारीको (६।१३३।४) यथाविधि सावित्री पढ़ावे और पीछे इस प्रकार उपदेश "यां त्वा पृवे भूतकृत ऋषयः परिवेधिरे। दें। यथा--"भग्नेश्वासि ब्रह्मचारिन् मम च (नित्य सा त्वं परिष्वजस्व मा दीर्घायु त्वाय मोखले ॥" भोजनकाले ) अपोशानकर्म कुरु । ऊ स्तियन्मा (६१३४।४५) (क निरीक्षः), (AT वृक्षारोहणं कुरु) मा दिवा पोछे आचार्य निम्नोक्त मन्त्र पढ़ा कर माणवकको स्वाप्सीः, समिधमाधेहि ।" ( कौ०१० ५६।१२) मन्नादिविदित यज्ञोपवीत दान करें। मन्त्र यथा- ब्रह्मचारी 'वाद' यह उत्तर दे। पोछे आचार्या "ओं "ओं यज्ञोपवीतमसि यज्ञस्य यज्ञोपवीतेनोपनज्ञामि।" अग्नये त्वा परिददामि ब्रह्मणे त्या परिददामि, उद्याय इसके बाद निम्नोक्त मन्त्र पढ़ कर आचार्य माण- त्वा परिददामि शूल्याणाय त्वा परिददामि शनु- वकको दण्ड दान करें। मन्त यथा- अयाय त्वा क्षात्राणाय त्वा परिददामि मारयुञ्जयाय त्वा "मित्रावरुपायोस्त्वा हस्ताभ्यां प्रसत प्रशिपा प्रतिगृह्णामि ।" मार्यवाय परिददामि अघोराय त्वा परिददामि तक्षकाय (को० स० ५६।३) त्वा वैशालेयाय परिददामि हाहाहुभ्यां त्वा गन्धर्वाभ्यां "श्यनोऽसि गायत्रच्छन्दा अनुत्वा रमे। परिददामि, योगक्षमाम्यो त्वा परिददामि भयाय च त्वा स्वस्तिमा सं बहास्य यज्ञस्यो दृचि स्वाहा॥" मभयाय च परिदशानि, विश्वेभ्यस्त्वा देवेभ्यः रिददामि (६।४८१), विश्वेभ्यस्त्वा देवेभ्यः परिददामि, विश्वेभ्यस्त्व पोछे ब्रह्मचारी-"मित्रावरुणयोस्त्वा हस्ताभ्यां भूतेभ्यः परिददामि सप्रजापतिकन्धा" ( कौशिकस० प्रसूतः प्राणिपा प्रति गृहामि," "सुश्रव" सुश्रवसं कुरु" : ५६।१३) इससे धान जीको अभिमन्त्रित कर ब्रह्मवारीके "अवकोऽविशुरोऽहं भूयास" तथा "श्येनोऽसि" इत्यादि : मस्तक पर छिड़के । अनन्तर आचार्य यथाविधि अन्यान्य मन्त्र पढ़ कर दण्ड ग्रहण करे। पोछे आचार्य माण-) सभी कर्म कर डालें। वकको अमन्त्रक कृष्णाजिन देखें। ___ अथर्ववेदीको मेखला और दण्डादिके विषयमें इसके वाद आचार्य ब्रह्मचारोको 'अहं सोभिः, नियम, ब्राह्मणको भाद्रमौजी मेखला, क्षत्रियकी मौवा इत्यादि सूक्त प्रत्येक ऋक्के अनुसार पढ़ावें। वा धना और वैश्यको क्षौमिकी मेखला होगी । अनन्तर माणवक यथा शास्त्र ब्रह्मचारि-व्रत ग्रहण अलावा इसके ब्राह्मणके लिये पलाश दण्ड, क्षत्रियके कर आठ समिध ले कर निम्नोक्त मन्त्र पढ़े और अग्नि- लिये अश्वत्थ और वैश्य के लिये न्यगोध्रावरोह दण्ड में आहुति दें। कहा है। दण्ड यदि नष्ट हो जाय, तो दूसरा दण्ड बना कर मन्त्र यथा-- "आने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयं तत्समापेयं | 'मेत्विन्द्रिय' इत्यादि मन्दसे पुनः उसे ग्रहण करे सभी तन्मे रोध्यतां तन्मे समृध्यतां माध्यनशतेन राध्यास | जगह यह नियम प्रचलित है। वस्त्र-ब्राह्मणका हरिण वा ऐणेय वस्त्र, क्षत्रियका तत्ते.प्रवीमि तदुपाकरोमि अग्न्ये व्रतपतये स्वाहा।।