पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/४७९

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४७६ यति चौथे भागमे नियमानुसार सव सङ्गत छोड़ संन्यास- . की प्रतीक्षा संन्यासीको भी करनी चाहिये। पथमें देख आश्रमका अनुष्ठान करना चाहिये । एक आश्रमसे । देख पैर धरना तथा वस्त्रले पानी छान कर पीना दूसरे आश्रम में जा कर शर्थात् ब्रह्मचर्या, गार्हस्थ्य और चाहिये। सत्य बोलना तथा मनमें जो काम पवित वानप्रस्थ धर्मका अनुष्ठान करने के बाद उन आश्रमोंमें जंचे वही काम संन्यासीको करना उचित है। कट अग्निहोत्नादि होम पूरा कर जितेन्द्रियत्व लाभ करना तथा अपमानजनक वातोंको सहना तथा किसीको भो उचित है। अपमानित कर पराजित करना संन्यासोंके लिये न्याय- ऋषिण, देवण और पितृऋण इन्हीं तीनों संगत नहीं। यह क्षणभंगुर शरीर धारण कर किसोके ऋणोंके बन्धनसे अपनेको उद्धार कर मोक्षप्रद संन्यास साथ शत्रुता करना उचित नहीं। यदि कोई क्रोध आश्रममैं मन लगाना चाहिये। किन्तु इन ऋणोंका प्रकाश करे तो संन्यासोको मी उसके बदले में कोधित न यरिशोधन कर जो लोग मोक्षधर्मकी सेवा करते हैं उनकों ! हो जाना चाहिये। वरं उसके प्रति कुशल वातका विपथगामो होना पड़ता है। नियमानुसार वेदाध्ययन, : प्रयोग करना चाहिये। सप्तद्वारविषयक ओ वाक्य है, पुलोत्पादन, और शक्ति भर यज्ञानुष्ठान कर मोक्षम मन ' उसे भूल कर भी प्रयोग करना उचित नहीं। नेत्र लगाना चाहिये। जो द्विज ऐसा न कर मोक्षायें मन । आदि पञ्चेन्द्रिय और मन-बुद्धि द्वारा गृहीत विषय पर लगाता है, वह नरकमें जाता है। ही वाक्यकी प्रवृत्ति होती है। इसीसे पण्डित लोग इस प्रजापति याग समाधान तथा सनस्वान्त दक्षिणा दे वाक्यको सप्तद्वारके नामसे पुकारते है अथवा सप्त- कर आत्मामें अग्नि आधटन कर ब्राह्मणको प्रवज्या : स्थानीय प्राणवायके द्वारस्वरूप हैं, इससे वाक्यको सप्त अर्थात् संन्यासप्रहण करना चाहिये। सर्वाभूतोंमें अभय- द्वार कहते हैं। यतियोंको सर्वदा ब्रह्मवाणी बोलना प्रदान कर घरसे संन्यास ले ब्रह्मवादी व्यक्ति तेजोमय और ब्रह्मके ध्यानमें निरत रहना उचित है। वे किसी लोकोंको पाते हैं, जिस द्विजसे किसी प्राणीको डर नहीं विषयकी कामना न करें वरं सव विषयों में निस्पृह हो लगता, उस द्विजको देहत्याग करनेके वाद कभी किसी | कर रहें। केवल उन्हें आत्मावलम्बन कर अकेला प्राणोसे मथन नहीं होता अर्थात वह भयशन्य हो जाता नित्य सुख या मोक्षकी कामना कर इस संसार में विच- रण करना चाहिये । भूकम्प आदि उत्पात या अङ्ग यतियोंको चाहिये, कि वे घरसे निकल दण्ड कम स्फुलिङ्ग आदि विषयों, नक्षन तथा हस्तरेखा आदिके गडल हाथमे ले काम्य विषय उपस्थित होने पर भी उससे फलाफल कह कर किसीके यहां भिक्षा ग्रहण करनेको इच्छा न करनी चाहिये। आस्थाशून्य हो मौनधारण कर परिव्राजक धर्मका आच रण करे। यति अग्निहीन, वरसहीन व्याधि-प्रतिकारकी जिस मकानमें भिक्षुक या ब्राह्मण या वानप्रस्थ, उपेक्षा करते हुए स्थिर बुद्धि रह और सदा ब्रह्मभावका कुत्ता या और कोई भिक्षार्थी भिक्षाके लिये खड़े हो उस आथय ले कर जडलमें रहना चाहिये। केवल भिक्षाके | मकानमें यतिको जाना उचित नहीं। मुण्ड मुड़ा कर लिये ही गांवमें आना उचित है। मट्टीका भिक्षापात्र दाढ़ी मूंछ और हाथके नखौंको कटवा कर दण्ड वृक्षमूल हो रहनेका स्थान, पुराने कोपीन आदि परिधेय- कमण्डलु और भिक्षापात्र हाथमें ले कर किसी प्राणीको · वस्त्र, असहाय भावसे एकान्त वास और सर्वत्र हो सम- जराभी कष्ट न दे यतिको नित्य विचरण करना चाहिये। दुष्टिका प्रपोग करना संन्यासीका एकान्त कर्तव्य है। यतिका भिक्षा या भोजनपात्र अर्तेजस अर्थात् चमकोला जीने और मरने किसी भी वातकी कामना करना न होना चाहिये। फिर भी उस पात्रमें किसी प्रकार संन्यासीको उचित नहीं। किन्तु जिस तरह नौकर का छिद्र न हो । यज्ञीय चमसोंकी जैसी शुद्धि होती अपने निर्दिए वेतनके लिये नियत समयकी प्रतीक्षा करता है, वैसी यतिके भोजनपात्रोंको शुद्धि जलसे धो देनेसे है, उसी तरह काधीन रह जीवनकाल या मरणकोल- ही हो जाती है। अलावूका पान, (तांवा ) काठका