पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/४८०

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४७७ वना वरतन, मिट्टोका पात, वांसवा वना वरतन यतियों-। आदि सूक्ष्मस्वरूपको उपलब्धि करना चाहिये और घ्या . के लिये स्वयम्भु मनुने निर्दिष्ट किया है। उत्तम है, क्या अधम है-सर्व दे हमें ही उनका अधिष्ठान यतिको केवल प्राण रक्षाके लिये नित्य एक वार है, इसको चिन्ता न करनी चाहिये। चाहे मनुष्य किसी भिक्षा ग्रहण करना, किन्तु अधिक भोजन कदापि न करना भी आश्रममें हो या आश्रम-धर्मभ्रष्ट हो क्यों न हो- चाहिये। क्योंकि अधिक भोजन फरनेसे विषयोत्यत्ति- । फिर भी, सर्वभूतों में समदशी होनेसे उसे वर्णाधमत्याग- की आशङ्का रहती है । गृहस्धके घर रसोइको आग ) के लिये धर्ममे अनधिकारित्व अथवा प्रायश्चित्त करनेके बुझ जाने, ओखल, मूसलका काम खतम हो जाने और वाद आश्रय करना न होगा। वर्णाश्रम आदिका चिन्ह गृहके सब लोगोंके भोजन कर लेने तथा जूठे वरतनों धारण धर्मका कारण नहीं हो सकता। निर्मली फल को हटा देने पर तीसरे पहर यतिको भिक्षा ग्रहण करने ) जलमें डाल देनेसे जल साफ हो जाता है, किन्तु निर्मली जाना चाहिये। भिक्षा पाने पर न खुश होना, फलका नाम लेनेसे ही जल साफ नहीं हो जाता। और भिक्षा न मिलने पर दुःख प्रकट नहीं करना चाहिये। विहित कर्मोके करनेसे ही धर्म होता है, केवल वर्णाश्रम- 'नच हर्णयो वा न च विस्मयो वा' . जिससे प्राणकी रक्षा | को लिङ्ग धारण करनेसे धर्म नहीं होता। हो सके उतना हो यतोको मिक्षा ग्रहण करना चाहिये। अपने शरीर में दुःख हो तो हो, किन्तु कोटपतङ्गोंकी अन्यान्य व्यवहार-कार्यों में द्रव्यकी आसक्तिसे भी दूर , रक्षाके लिये दिन रात पथ देख-देख कर चलना चाहिये। रहना यतिका एकान्त कर्तव्य है ! यदि कोई भिक्षा देने • भूल चूकसे दिन रातमें यति द्वारा जो जीव नाश होते का आग्रह करे, तो यतिको इच्छा न रहने पर या भिक्षा । हैं, उन्हीं पापोंके प्रायश्चित्तस्वरूप उसको स्नान कर छैः हो चुकने पर आदरके साथ अस्वीकार कर देना चाहिये। : वार प्राणायाम करना चाहिये। यदि प्राणायाम विधि- यति मुक्तकामी हैं सही, किन्तु अत्यन्त पूजाप्राप्तिके । पूर्वक सप्तव्याहुति और दश प्रणवयुक्त प्राणायामत्रय कारण उसके ससार-बंधनको शङ्का हो सकती है। (पूरक, कुम्भक, रेचक आदि) किया जाये, तो यह ब्राह्मण- इससे भूखों या निर्जन स्थानमें रह कर विपयोंसे आकृष्ट के लिये तपस्या ही समझनी चाहिये। सोने, चांदी इन्द्रियों को एक एक करके विषयसे हटा देना चाहिये। आदि धातुओंका मल मागमें वपानेसे जैसे चला जाता इन्द्रियोंका निरोध, रागद्वपादिका क्षय तथा सर्वभूतोंमें है, वैसे ही प्राणायाम द्वारा इन्द्रियविकारादि दोपोंका अहिंसा भाव रखना आदि इन्हीं सव उपार्यों द्वारा मनुष्य नाश करना चाहिये । स्थानविशेपमें चित्तवन्धनरूप मुक्तिप्राप्तिका अधिकारी होता है। कर्मदोषके कारण धारणा कर सब पापोंका नाश करना उचित है। अपने जावकी तरह तरहको गति प्राप्ति-नरकमें जाना, तथा विपयोंसे इन्द्रिश आकर्पणरूप प्रत्याहार द्वारा विषय- यमालयको यातना आदि विषयोंकी आलोचना प्रत्या संसर्गरूप सब पापोंसे दूर रहनेकी चेष्टा करना उचित है लोचना यतिको करते रहना चाहिये । प्रियतमोंके वियोग, और परब्रह्म लीन रह कर क्रोधादि अनीश्वर गुणों पर अप्रिय लोगोंके हाथ संयोग, जरा द्वारा अभिभव और विजय प्राप्त करना चाहिये। व्याधि द्वारा पोड़ा, इस देहसे जीवात्माका उत्क्रमण, जीवको देव-पश्वादि उत्कृष्टोपकृष्ट योनियोंमें किस पुनः गर्भवास द्वारा पुनर्जन्म और सहत्र सहस्र कारणसे भ्रमण करना होता है, यह विषय आत्मज्ञानहीन योनियोंका भ्रमण-वे सव यातनायें जीवके कर्मदोपके | मनुष्यको कभी नहीं मालूम हो सकता, क्योंकि यह कारण होती रहती हैं। इन्हीं साविषयोंको मन चिन्ता विषय ध्यानयोगसे हो जाना जा सकता है। इसलिये करते रहना यतिको उचित है। यह निश्चय जानना चरित सदा ध्यानपरायण होना उचित है। . ध्यान. चाहिये, कि जीवके सभी तरहके दुःश्व अधर्मसे ही योगसे सम्यक् आत्मदर्शनसम्पन्न व्यक्ति पापपुण्यकर्मों उत्पन्न होते हैं और अक्षय सुख समृद्धि धर्मके अधीन द्वारा संसारवन्धनमें नहीं आता। आत्मदर्शनहीन मनुष्य हैं। योग द्वारा परमात्माके अन्तर्वामित्व, निरयवत्व । ही संसारकी गति प्राप्त कर सकता है। अहिसासे Vol. XVIII, 120