पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/४८२

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४७९ यतित्व-यत्न हैं। असमर्थ होने पर सवा ग्यारह कापण दान करनेसे पड़ता है। इसोका नाम सान्तपनकृच्छ या यतिसान्त- भी काम चलेगा। __प्रायश्चित्तो. विधानानुसार इसका अनुष्ठान करना यती (सं० स्त्रो० ) १ रोक, रुकावट । २ मनोराग, मनो- होता है। यदि कोई व्यक्ति पतित वा महापातकोके विकार । ३ विधवा । ४ छन्दोंमें विरामका स्थान । ५ दाहादि करे, तो उसे चान्द्रायण-व्रत करना होता है। शलक रागका एक भेद। ६मृदंगका एक प्रवन्ध । ७ शास्त्रमें जिन्हें भदाह्य कहा है, जैसे, आत्महत्याकारी और सन्धि। (पु०) ८ यति, संन्यासी । । जितेन्द्रिय । १० कुष्ठ रोगसे मरा हुआ, उनका यदि प्रायश्चित्त किये बिना १० जैन मतानुसार श्वेताम्बर जैन साधु । दाहादि किया जाय, तो उसे यतिचान्द्रायण व्रत करना | यतोम (अ० पु०) १ मातृपितृहोन, अनाथ। २ वह होगा। (प्रायश्चित्तवि०) बहुत बड़ा मोती जिसके विषयमें प्रसिद्ध है, कि यह यतित्व ( स० क्लो०) यतेर्भावः त्व। यतिका धर्म, भाव । सोपमें एक ही निकलता है। ३ कोई अनुपम और या कर्म। अद्वितीय रत्न। यतिथ (सं०नि०) यतोऽधिक, जितना तितना। यतीमखाना ( फा० पु० ) वह स्थान जहां अनाथ बालक यतिधर्म (स'. पु० ) यतेधर्म । यतियोंका धर्म, संन्यास। रखे जाते हैं, अनाथालय। ___यति देखो। यतीयस् (सं० क्ली० ) रौप्य, चांदी। यतिधर्मन् (सं० पु० ) श्वफल्कका एक पुत्र। यतुक (सं० पु०) यतूका देखो। यतिधा (स अव्य० ) जितने अंशमें, जितने उपायसे। । यतुन (सं० त्रि०) १ गन्ता, जानेवाला। २ यतनशोल, यतिन् (सत्रि०) यत संययोऽस्यास्तीति इनि।। यत्नवान् । संयमो, जितेन्द्रिय। यतूका (सं० स्त्री०) यत् वाहुलकात् उकन् पक्षे उक, स्त्रियां यतिनी (सं० स्त्री० ) १ संन्यासिनी । २ विधवा। टा । चक्रमर्द, चकवड़का पौधा । यतिमङ्ग (सपु०) काव्यका वह दोष जिसमें यति ' यतोजा (सं० वि०) जिससे उत्पन्न । अपने उचित स्थान पर न पड़ कर कुछ आगे या पीछे । यतोद्भव (सं० वि०) जिससे उत्पन्न । पड़ती है और जिसके कारण पढ़नेमें छदको लय विगड़ यत्काम्या (सं० अवा०) जिस अभिप्रायसे । जाती है। यत्कारिन् (सं०नि०)जो काम करनेवाला। यतिभ्रष्ट (सपु० ) वह छद जिसमें यति अपने उपयुक्त । यत्कार्य ( सं० अध्य० ) जिस काममें । स्थान पर न पड़ कर कुछ भागे या पीछे पड़ी हो, यति- यस्किञ्चित् (सं० त्रि०) थोड़ा-सा, वहुत कम । भंग दोषसे युक्त छन्द। यत्कतु (सं०नि०) जिस उपायसे, जिस संकल्पसे । यतिमैथुन ( स० क्लो०) यतीनां दुष्टयतीनामिव गोपनीयं यत्न (सं०पु०) यत (यजयाचयतविच्छाच्छरक्षो नछ । पा ३३१० मैथुन। यतिगोप्य रति । पर्याय-खञ्जनरत । इति नङ । १ रूप आदि २४ गुणों के अन्तर्गत एक गुण । यतिवर्य (स० पु० ) एक प्रसिद्ध नैयायिक, शिरोमणि कृत। यह तीन प्रकारका होता है । यथा--प्रवृत्ति, निवृत्ति और दीधितिके एक टीकाकार। जीवनयोनि । कृतिसाध्य इष्टसाधनत्वमत्तिको चिकीर्षा यतिसान्तपन (सं० लो०) यतिचान्द्रायणव्रतविशेष । इसमें कहते हैं इसीसे प्रवृत्ति होती है। जैसे मधुर और विष- तीन दिन केवल पञ्चगव्य और कुश-जल पी कर रहना| युक्त अन्न खानेसे वड़ी हानि पहुंचती है। इसलिये बड़ी पड़ता है। शंखस्मृतिक मतसे तो यह बत तीन दिनका हानिको आशंका रहनेसे खानेवालेकी प्रवृत्ति नहीं होती। है, परन्तु नावालके मतसे सात दिनका है। गोमूत्र, यहां चिकीर्षाके अभाव होनेसे वह नहीं खायगा। जब गोवर, दूध, दही, घृत, कुशका इल इनमें से एक एकको खानेवाला जान जाता है, कि इसे खानेसे मेरो हानि होगी प्रतिदिन एक बार पोकर रात दिन उपवास करना । तव उसकी खानेकी प्रवृत्ति नहीं होती। किन्तु जब वह