पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/४९७

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४६४ यन्त्र कालीय त्र। करना चाहिये। संस्कार न कर यन्त्र बांधनेसे उसका . पहले त्रिकोण आदिमें वीज और साध्याक्षर लिख कुछ फल नही होता। इसके बाहर अष्ट कोणोंमें आदि बीज लिखना होगा। सिवा इसके जो यन्त्र लिख कर पूजाकी जाती है, इसके बाहर त्रिकोण द्वन्द्व में छः आदि वीज एवं इसके उसे पूजायन्त्र कहते हैं। धारणयन्त्रके साथ पूजा वहिर्भागमें दो स्वरवर्णांका विन्यास कर अष्टदल में स्वाहा | यन्त्रको किसी किसी स्थलमें अलग कभी दिखाई देता के साथ बीजषट्क लिखना होगा। इसके बाद इसकी है। इस पूजायन्त्रका विषय तन्त्रसारमें इस प्रकार दो पंक्ति कुर्चवीजसे घेर कर इसके बाहर दो भूपुर । लिखा गया है,- लिखना होगा। इस भूपुरके चारो ओर आद्यवोज और श्रीविद्यायत्र। चतुस्कोणमें मायाबोजद्वय लिखना चाहिये। इस यन्त्र- के धारण करने पर साधक जगत्पूज्य होता है। एक त्रिकोण अङ्कित कर, उसमें विन्दु और उसके ताराय'त्र। वाहर आठ कोण वनाना होगा । इसका नाम संहार- दोनों त्रिकोणों में सुवर्णशलाकासे सोने का पट्ट रौप्यः चक्र है। इसके बाहर दश कोणद्वय और इसके बाहर फलक या भोजपन आदिमें कुंकुम गोलोचन, रक्तचन्दन, चौदह कोण अङ्कित करना चाहिये । इसका नाम स्थिति जटामांसी आदि द्रध्य समान भागसे ले कर पंक्ति क्रम- चक्र है। इसके बाहर अष्टदल और इसके बाहर सोलह से मूलयन्त्रके होल्लेखा और रेफके वीचमें अमुक अमुक दलका पद्म अङ्कित कर उसके बाहर भूपण स्वरूप वृत्त- रक्षा करो, अमुकीके उत्तम पुत्र उत्पादन कर दी, अमुक- द्वय अङ्कित किया जायगा । उसके बाहर सृष्टिचक्रात्मक को ज्ञानवान् वनाओ-इत्यादि साध्य विषय लिन षट- चार द्वार अङ्कित करना होगा। यह यन्त्र सिन्दुर या कोणों में भा, ई ऊ, ऐ, औ, मा-यहो छः दीर्घस्वर कुकुमादिसे लिखा जाता है अथवा यह यन्त्र सुवर्ण विन्यास करना होगा। पीछे अष्टदलोमें ऐं हों, चांदी, पञ्चरत्न अथवा स्फटिक द्वारा उत्कीर्ण-कर तय्यार एँ हैं फट् स्वाहा-यही अष्ट वर्णको लिखना.चाहिये करना चाहिये। इसके बाह्य भागमें भूपुरद्वय लिख उसके अष्ट कोणों में ___'श्रीक्रमीमें लिखा है, कि जो मनुष्य समरेखा न वनविन्यास करना होगा। सोनेफे कलमको अभावमें | खीच कर यह यन्त्र तय्यार करता है, उसका सर्वस्व दुर्वाकान्त या कुशाको जड़से यन्त्रको लिखा जा सकता। विनष्ट होता है। जहां जिस देवताकी स्थिति निर्दिष्ट है। यह यन्त्र पीत (पीला) वस्त्र और जतु द्वारा घेर है, वहां उसो देवताकी अफ़ना न करनेसे साधकंके कर रक्तसूत्र द्वारा वन्धन कर शिशुओं को कण्ठ, रमणियों मांस और रक्तसे उस देवताका पारणा होता है । इस के वाये हाथमें, और पुरुपोंके दाहने हाथमें धारण यन्त्रमें पशुकी ईष्ट न लगनी चाहिये। सतर्क हो कर करना चाहिये। इस यन्त्रके पहनेसे बन्ध्या पुत्र लाभ | यह यन्त्र अङ्कित करना चाहिये। यदि दैवात् कोई करती है। निर्धन व्यक्ति धनवान होता है। पहले मनुष्य पशुके सामने ही यन्त्र अङ्कित करे, तो इससे वह गौतम आदि ऋपि लोगोंने ज्ञानलाभके लिये और गङ्गहीन हो जाता है। विजयाभिलाषो राजोंने विजयके लिये यह यन्त्र धारण 'भूतभैरव' में लिखा है, कि इन यन्त्रोंको लिखते समय किया था। . कमलका केशर न देना चाहिये। यदि कोई ऐसा करता है, तो उसे भैरव योगिनियों के साथ उसकी हत्या कर देते हैं। हां, यह भी ध्यान रखने योग्य है, कि यह यन्त्र .. जिन सव यन्त्रोंकी बात ऊपर लिखी गई वे सब धारण .या शरीरके किसी हिस्से में बांधने योग्य हैं। यह सभी | रातको कदापि लिखा न जाये। यन्त्र, भोजपत्र . पर लिखे जाय और पहले कहे हुए अपराजिता, करवी अथवा जूहीके युष्पमे देवीका बास नियमके अनुसार शुद्ध या, संस्कार कर इनका प्रयोग रहता है, अतएव इस यन्त्रको उसके फूलसे भी पूजा हो तंत्रसार।