पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/४९९

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यन्त्र ये उपयुक्त प्रकारके हों ( अत्यंत छोटे या अत्यन्त वड़े), कान, नाकसे मैल गिरानेके लिये इस यंत्रकी आवश्य- न होने चाहिये। यंत्र इस तरहसे निर्माण करना | कता होती है। चाहिये, जिससे ये देखनेमें सुन्दर, तीक्ष्ण, चिक्कण मुख- नाड़ीयत्र। युक्त, विशोष कठिन सुग्राही हों, अर्थात् सहज हीमें पकड़े ___ नाड़ीयंत्रसे बहुत तरहके काम होते हैं। इससे जा सके। यह कई तरहके आकारके बनाये जाते हैं। मुंहके भेद- स्वस्तिकयन्त्र। से यह यंत्र दो तरहके बनते हैं। एकका मुख एक ओर, स्वास्तक यत्र १८ उंगली लम्बा बनाना होता है। दूसरेका मुख दोनों ओर इन यंत्रों में छिद्र रहते हैं। देह के २४ तरहके स्वस्तिक यंत्रोंके मुख सिह, ध्याघ्र, चक, | स्रोतोंसे कांटे आदि निकालनेके लिये शरीरके फोड़ तरक्षु, भालु, चीता, विडाल, सियार, हरिण, और ना. और ववाशिर आदि रोगकी परीक्षाके लिये, अस्थि रुक-इन दश तरहके पशुओंके मुखके आकार और | समाई हुई वायु, दूषित रक्त, स्तन्य भादिसे दूह कर कौमा, फङ्क, टिरहरी, चास, आस. शशधाती, उल्लू, दूध निकालनेके लिये, देहके भीतरके चीरफाड़ करने- चिल्ली, श्येन, गृध्र, क्रौञ्च, भृङ्गराज, अञ्जलि कर्णावभञ्जन, वाले रोगोंको अस्त्रचिकित्साके सहायतार्थ और देहकी और नन्दिमुख, इन १४ तरहके पक्षियों के मुखके आकार- भीतरी फोड़ोंके लिये दवा प्रयोग करनेको सुविधाके यंत्र तय्यार करने चाहिये । ये २४ प्रकारके यंत्र हैं लौह । लिये नाड़ी-यंत्रोंका व्यवहार किया जाता है। ये यंत खण्डों द्वारा तैयार करना चाहिये। ये लोहखण्डद्वय ! शिरा, धमनी, मलद्वार और मूत्र द्वारा वेहगत स्रोत- एक किलसे बंधे रहते हैं। इस खिलके दोनों मुख मशर- समूहमें उत्पन्न हुए रोगोंमें प्रयोग किये जाते हैं इससे दालकी तरह चौड़े बने रहते हैं। इसकी जड अर्थात उन स्रोतोंकी आकृतिके परिमाणके अनुसार इन यंत्रों- पकड़नेको जगह अंकुशकी तरह टेढ़ा होता है। हाथमें | की लम्बाई और मोटाईका निर्णय कर यथासाध्य युक्ति- वाण या कण्टकादि कोई प्रकाश्य कांटा गड़ जाने पर से यंत्र तय्यार करने चाहिये। उसके निकालनेके लिये इस स्वस्तिक यंत्रकी आवश्यकत इन सब नाड़ियों में भगन्दर-यंत्र दो तरहके हैं। होती है। एक, एक छिद्रवाला, दूसरा दो छिद्रवाला होता है। वण या फोड़े का यंत्र एक ही तरहका होता है। वस्तिक सन्दंशया यंत्र चार प्रकारका है - उत्तर वस्तियत्र पुरुष और स्त्रोके सन्द शयंत्र भी दो तरहका होता है। १ वढ़ई या भेदसे तीन तरहका होता है। मूत्रवृद्धियंत्र १,दको- लुहारकी संडसोकी तरह, इसमें कील रहती है। इसको दयत्र २, धूमयन ३, निरुद्धप्रकाशयन , सन्निरुद्ध सन्दश-यत्र कहते हैं। सनिग्रह कहते हैं। दूसरे प्रकार- गुदयन १, अलावूयत्र १, कुल २० प्रकारके हैं। के यंत्रमें कौल नहीं रहती, यह हजामके भोचनेकी तरह शलाका यत्र। होता है। इन दोनों तरहके यंत्रोंको अनिग्रहयंत्र कहते शलाकायन्त्रसे बहुत तरहके कार्य सम्पादित होते है। ये १६ उंगल लम्बे होने चाहिये । चमड़े में, मांसमें, है, इससे ये नाना आकारके तय्यार किये जाते हैं। ये शिराओंमें तथा नाड़ियों में धसे हुए कारोंके निकालनेके कार्याभेदसे मोटे लम्बे बनाये जाते हैं। ये यन्त्र काम लिये यंत्र व्यवहृत किये जाते हैं। विशेषसे भिन्न रूपसे १,२,३ या इससे अधिक संख्या- तालयका में तय्यार किये जाते हैं। शलाकायन्त्र कुल २८ तरह- तालयंत्र भी दो तरहका होता है। यह १२ उंगल के होते हैं। उनमें गण्पद या केंचुआके मुखको तरह- लम्बा तय्यार करना होता है। दो तरहके तालयंत्रों के दो होते हैं। शरपुडमुखाकृति २, सर्पफण मुखा- एक मत्स्यताल अर्थात् शल्ककी तरह पतला, टेढ़ा और कृति २ और वडिशमुखाकृति २ प्रकार-इन आठ एक मुखवाला होता है। दूसरा यंत्र दोमुखा होता है || प्रकारके यन्त्रों में केचुएको आकृतिके दो एषण कार्यामें