पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/५०४

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यन्त्र तावत्या मौा यद्वितीयवृत्ते धनुर्भवेत्तत्र । समय किस रेखा पर रह कर संसारको गम्मी पहुंचाते. हैं। सिवा इसके इससे याम्योत्तर-रेखा और दिनगतशेषा नाड्यः प्राक् पश्चात् स्युः क्रमेणैवम् ॥" भस्फुट क्रान्तिकी ( Declivation of the sun )| अर्थात समतलभूमिमे विज्या परिमित उंगल गणना कर दिनमानका भी निर्णय हो सकता है।। ( Radius of a greater circle ) कटवृत्तके साथ इस तरह समतलक्षेत्रमें एक चक्र निवद्ध कर उसमे शंकु साथ और यथास्थान दिशा अङ्कित करना चाहिये। फिर बैठा कर शंकुयन्त्र या सूर्यघड़ी (Sundial) तय्यार उसको गोल जान कर उसमें प्राक् और पश्चात् अमा किया जाता था। उसमें इन घड़ियोंकी तरह १ ले १२ तक (Sine of amplitude) और उत्तर और दक्षिण ज्या घन्टाका चिह्न अङ्कित न कर इसके डायल पर ६० समान ध्यासस्वरूप प्रदान करना उचित है। इस तरह अप्रान- भाग कर दिया जाता था। इसीको ६० दण्ड कहते थे। वद्ध सूत्रको क्षितिजवृत्तके उदयास्त सूत्र कहा जा सकता पृथ्वीके दिन रातकी कक्षा पर परिभ्रमण करते समय है। इसके बाद उस वृत्तके मध्य भागमें समकेन्द्रमें (Obliquity of the Ecliptic) हम लोग जिस तरह | धुज्या परिमित (Cosine of declination or radius सूर्याको टेढ़ी चालको देखते हैं, इस शंकु यन्त्रमें शंकु of diurnal circle ) कर्कट (ध्यासार्द्ध) द्वारा और एक छायांके प्रतिभातसे उसके परिमाणके अनुसार दण्डादि- वृत्त खीच कर उसे ६० नाड़ी अर्थात् विभाग करना का विभाग किया जाता था। चाहिये। इसके द्वारा सूर्यको दिन रातको गति समझ लो कि प्रभातके अरुणोदयमें शंकुच्छायावृत्त (Daily revolution) ६० भागोंमें विभक्त होनी चाहिये । परिधिका जो दण्ड अन्तमे गिरता है, वह पश्चिम है,' इसके बाद त्रिज्यापरिमित ढंगल एक सरल रेखाके मूल पीछे उत्तरायण अथवा दक्षिणायनके अनुसार सूर्यदेव-' केन्द्रस्थलमें संलग्न कर सूर्य की ओर दण्डानको इस को. प्रत्यक्ष गति जिस ओर टेढ़ी हो जाती है, प्रातः तरहसे पकड़ना चाहिये कि किसी तरह उस दण्डको मध्याह्न और सायं सन्ध्या क्रमसे शंकुच्छाया भी उसी। छाया न लगे। यह षष्ठम ही उस समयके गोलकोंके तरह स्थानविशेषमें अर्थात् विषुवत् रेखासे अन्तरित ऊपर सूर्याका अवस्थान-मुहूर्त समझना चाहिये। प्रदेशोंके न्यूनाधिकके अनुसार ) उत्तर या दक्षिण ओर इसके बाद पूर्व ओरके त्रिज्यावृत्तका जो अनाव चिह्न घुम आती है। इसी तरह उदयसे अस्त तक शंकुच्छाया है उसका और षष्टयानके मध्य भागको ऋजुशलाकासे भेद क्रमशः पश्चिमसे पूर्णकी ओर घूमा करती है। यही कर उस शलाकाको धज्यावृत्तमें जीवावत् धारण करनी छाया जव जिस दण्डांशसे हो कर वृत्तमें घूम आयेगी, ! होगी। यह कभी ज्या न होगी। इस तरह शलाकान- तव दिनमें दिवाकर यानो सूर्या उतनेही दण्ड पार कर द्वयके धनमे जितनी घड़ी वोतेगी उतनी संख्या ही दिन रहे हैं. ऐसा समझना चाहिये। गत काल समझना चाहिये। इस तरह पश्चिम अग्रानके ४ यष्टियन्त्र (Statf instrument षष्ट्यप्रद्वयके मध्यमें भी शलाका द्वारा दिनका शेष समय यन्त्रकी तरह इसमें भी समतल पृष्ठ चौकोन भूमि या समझना होगा। दिनके शेषका अंश ही दिनमान और लकड़ीके एक टुकड़े पर वृत्त अडित करना चाहिये। उसका दिनगत नाड़ी होती है। इन दोनोंको एकतासे गोलाध्यायके यन्त्राध्याय विभागमें इसका प्रकरण इस | दिनमानकी उपलब्धि होती रहती है। तरह लिखा है-- ___ऊपर जो भूमिके वृत्तका विषय लिखा गया है उसे "त्रिन्याविष्कम्भद्धिं वृत्त कृत्वादिगंकितं तत्र । क्षितिजवृत्त जानना चाहिये। उसके पूर्व और पश्चिम दत्त्वाग्रां प्राक् पश्चाद्य ज्यावृत्त च तन्मध्ये ॥ २८॥ भाग. अग्रा रहता है। अप्रोन विन्दुको उपरिगत विल- तत्परिधौ षष्ट्यक षष्टिर्नष्टय तिस्ततः केन्द्र । म्बित रेखा उदयास्त सूत्र कहा जाता है। अग्रभागमें त्रिज्यांगुला निधेया यट्यप्राणान्तरं यावत् ॥ २९ उदित रवि जिस तरहसे दिन रातके वृत्तकी कक्षा पर Vol. XVIII, 126