पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/५०८

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यन्त्र निपात करना होगा। पश्चिमसे लग्न तक जो वृत्त- । स्फुटं सूक्ष्मम् ।" किस तरह इस यंत्रकी गठन करनी रेखा होगी, वही होरामान समझना होगा। होगी, उसका विवरण सूर्या सिद्धांत-टीका रङ्गनाथने अपर कहा जा चुका है, कि यन्त्रक राशिना पड़ इस तरह लिखा है- वर्गमें गिराओ। इस तरह चक्र खगोल मध्यस्थ ध्रुव "शुल्वस्य दिग्भिर्विहितं पलैर्यत् पङ्गुलोच द्विगुणायतास्यम्। ' पष्टिके साथ बांध देनेले और क्या फल हो सकता है । तदंभसा पष्टिपलैः प्रपूर्य पात्र घटाई प्रतिम घटी स्यात् ॥ इसके उत्तर महामति भास्कराचार्यका कहना है, कि सत्र्य शमाषप्रयनिर्मिता या हेम्नः शलाका चतुरांगुला स्यात् । चक्रमें इप्ट प्रमाण कीलक प्रोथित कर इस तरह किसी विद्ध तया प्राक्तनमनपात्र' प्रपाते नाड़िकयाम्बुभिस्तत् ॥ आधार पर चक्र स्थिर करना होगा, जिससे वह कील मेधादि व्यवधानरूप भलरहित सूर्य आकाशमें ध्र वाभिमुख हो । चक्र स्थिर हो जाने पर कोलफी प्रतिभात होने पर अर्थात् निर्मल आकाशमें सूर्योदय छाया इष्ट समयमें जहां पड़ेगो, यंत्रके नीचेको ओरके । होने पर नरयंत्र स्थापित होता था। यह बारह अंगूल उसो चिह्नमें नत-नाडिका जानी जायेगी। शंकु और घटीयको तरह कालसांधक है। दिनमें ही ७ घटिका था कपालय' । ( Clepsydrn ) दिनरातके प्रायः इसकी उपकारिता उपलब्धि होती है। मनुष्यकी कालमान निर्देशके लिये सूर्यसिद्धांतमें (१३।२१-२५) तरह यह यंत्र बड़े आकार में वनता था । सम्भवतः इसीसे कपालादि यत्रका उल्लेख है। ये सब प्रक्रियाये नोचे इसका ऐसा नाम रखा गया होगा। लिखी जाती है- "तोयय'प्रकपानादैर्मयूरनरवानरः॥ मयूर और वानर-यत्रका प्रचलन अव दिखाई नहीं ससूत्र-रेणुगमैच सम्यक कारनं प्रसाधयेत् ।। देता। सम्भवतः स्वय'वहार्थ इन सब यत्रोंका प्रयोग पारदाराम्बुसूत्राणि शुल्यतैलजलानि च । था। इनके कार्यासाधनका ढङ्ग कई तरहके और दुर्गम योजानि पासव स्तेपु प्रयोगास्तेऽपि दुर्नभाः॥ । होनेके कारण विशेष रूपसे लिखा नहीं गया। रेणुगर्भ ताम्रपानमछिद्र न्यस्तं कुपडे ममान्भसि । sund-ressels) वालुकायंत्रकी तरह ससूत्र विलम्बित रह यमित्य होरात्र' स्फुट यन्त्र कपालकम् ॥ । कर दिनमानांश दतलाता था, वैसे ही यह मयूरयंत्रके नस्यत्र तथा साधु दिवा च विमले रखी। मयूरोदर-गहरेमें रहती वालुकाराशि स्वयंचालित होकर छायासंसाधनःप्राक्त कानसाधनमुत्तमम् ॥" मयूरके मुखवियरसे निरूपित समयके अनुसार वाहर कपालाकार या गोलाई के अनुरूप नीचे सूक्ष्म छिद्र। निकालता था। वानरयन भी इसी तरह किसी युक्त एक ताम्रपात्र प्रस्तुत कर यह वैसे ही आकारके । उपायसे सुसिद्ध हुआ था । यह सब यब स्वयं वहनके स्वच्छ जलपूर्ण बड़े एक दूसरे पात्रमें डाल देना चाहिये लिये उसको खोग्नले आर (IIollow spokes) मध्य पारद क्रमस इस छिद्रसे धीरे धोरे जल प्रवेश कर ऊपरवाले और जल, सूत, डोरी (शूल्ब ) और तैलयुक्त जल, तुड़- पात्रको नोचे बड़े पानमें डुवा देना चाहिये। पात्रको वीज और पांशु (धूलि ) आदि प्रयोग करना होता था। भाकृतिके अनुसार रन्ध्रपथ ऐसा संकीर्ण करना होगा ८ सय वहयन्त्र (self-rerolving instrumerit ) कि नाक्षलाहोरात्र (Nrcthemeron) ग्रन्त नीचे कैसे यत्रको स्वयवादी शक्तिसम्पन्न करना होता था, उस. कुण्डमें ६० वार निमग्न हो, किसी तरह फम या अधिक | का विवरण सिद्धान्तशिरोमणिके यताध्यायमें इस तरह न हो, इसके द्वारा दिनके ६० दण्ड ला निरूपण होता | लिखा है, रहता है। कपालकी तरह घटोलण्ड द्वारा यह यव "लधुदाज समचक्रे समसुपिराराः समान्तरा नेम्या। निर्माण किया जाता है. इसीसे इसका नाम कपाल किञ्चिद्का तोज्याः सुपिरोस्या पृथक् तासाम् ॥ यब है, "तत् कपालक फषालमेव कपालक घटसाण्डानां रसपूर्णे तच्चक्र' द्याधाराक्षस्थित स्वय भ्रमति । 'कपालपदवाच्यत्वात् घटाघस्तना कारं यंत्र घटीय उत्कीर्य नेमिमथवा परितो मदनेन संलग्नम.॥ Vol. XVIII. 127