पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/५०९

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यन्त्र तदुपरि तालदलाद्य कृत्वा सुषिरे रस' क्षिपेत् तावत् । वह चक्र जल द्वारा आकृष्ट हो कर स्वतः ही घूमने यावद्रसैकपाश्वें क्षिप्त' जल नान्यतो याति ॥ लगता है। पिहितच्छिद्रं तदतश्चक्र भूमति स्वय' जलाकृष्टम् । ६ कक्क टनाड़ीयल (Syphon)-इस यन्त्रसे कमी ताम्रादिमयस्याङ्क शरूपनलल्याम्वुपूर्णस्य ॥ कभी चक्रका स्वयं महत्त्व सम्पादित हो सकता है। एक कुण्डजलान्तद्धितीयम त्वधोमुखं च वहिः। ताम्रादि धातुओंसे अंकुशाकार टेढ़ा नल तय्यार कर युगपन्मुक्त चेत् के नलेन कुण्डाद्वहिः पतति ॥ जलसे उसे भर देने पर उसके दोनों मुह वन्द कर देना नेम्यां वद्धा घटिकाश्चक्र जलयन्त्रवत् तथा धार्यम् । चाहिये। इसके बाद उसका एक मुंह जलपात्र में फेक नलकप्रन्युतसलिलं पत्तति यथा तहटी मध्ये ॥ कर दूसरा मुंह खोल देने पर उस जलपानका कुल जल भूमंति ततस्तत सतत पूर्याघटीभिः समाकृष्टम् । नल द्वारा निकल जाता है। चक्रन्युत तदुदकं कुण्डे याति प्रणालिकया ॥" पूर्वोक्त स्वयवाही चक्रके नेमिदेशमें कई जलपात्र (सिद्धांतशि० य० ५०-५६) सटा कर उन्हें जलयन्त्र ( Water wheel )की तरह दो ' पहले वहुत छोटी लकड़ीका एक चक्र तय्यार कर आधार-अक्ष इस तरह जोड़ना चाहिये, कि जिससे नल. उसकी परिधिमें छिद्रवाले आर जोड़ो। यह आर एक ले प्रवाहित जल घटीपात्रोंमें पड़े। इस तरह जल- समान बरावर छिद्रवाले हों। इसके बाद ये आर चक्र- पात्रके पूर्ण हो जाने पर उसके वोझसे आकृष्ट हो वह नेमिमें सम अन्तर पर जोड़ना चाहिये। सभी नदीके चक्र घूमने लगेगा, पोछे इस चक्रके पानसे नीचे गिरा आवर्तकी तरह एक ही ओर टेढ़े दिखाई देते हैं। वादमें हुआ जल प्रणाली द्वारा फिरसे कुण्ड में जाता है। इस ये छिद्रवाले आरोंमें सुपिराद्ध तक पारद डाल कर तरह प्रणाली द्वारा आया जल वारम्वार जलपालमें आरका मुंह बन्द कर देना चाहिये। पोछे दोनों ओरके आनेसे यन्त्रके निरन्तर स्वयंवहत्व सम्पादित होता है। आधारों पर चक्रकेन्द्रदण्ड ( Axis ) रखनेसे वह यन्त्र ऊपर जो स्वयंवहत्त्व प्रकरण लिखा गया, वह दुर्लभ शान देनेवाली वाकको तरह स्वयं घूमने लगती है। इस है अर्थात् मनुष्य अनायास ही सम्पन्न नहीं कर सकता। का कारण यह है, कि यन्त्रके एक भागमें पारद आर-मूल- यदि यह स्वीकार न किया जाये, तो सव घरोंमें स्वय'- में और दूसरे भागमें उसका अग्रभाग प्रधावित होता है। वाही यन्तकी अधिकता दिखाई देतो। सूर्यसिद्धान्तके इस तरह आरोंके परस्पर भार एक तरफको झुक जाती | टीकाकार रङ्गनाथने लिखा है,-"इय स्वयवहविद्या और दूसरी तरफको घमने लगती है। समुद्रान्तनिवासिजनैः फिरड्याख्यैः सम्यगभ्यस्तेति ।

भ्रमयन्त्रके द्वारा यन्त्रनेमिके चारों दिशा खोल कर

| कुहकविद्यात्वादन विस्तारानुद्योग इति ।” अर्थात् यह .. केवल दो उंगल सुपिरके छिद्र और फैलाव होनेसे उस स्वयं वहविद्या समुद्रप्रान्तवासी यूरोपीयोको सम्पूर्णरूपसे पर ताड़का पत्ता घुसेड़ ऊपरसे मोम दे कर बन्द कर अभ्यस्त है। यह विद्या कुहकविद्या होनेसे विस्तारपूर्वक देना चाहिये। इसके बाद पूर्ववत् चक्रको दो आधार- नहीं लिखी गई। । अक्षों पर रख नेमिके ऊपर भागके ताड़के पत्तेको कार १० चाप या धनुः ( Semi-circle ) और ११ तुरीय डालनेके वाद उस छिद्रमें जल और पारद ढालना (quadrant ) और वर्तमान यूरोपीय जातियोंका चाहिये। पहले नेमिके ठोक अद्धेश रस द्वारा भर कर निकाला १२ पड़ांशवृत्तय' (Sextant )-गोलका दूसरो वगलमें जल डालना चाहिये। जलके छेदसे बाहर गोलत्व, घटिकाज्ञान, नतोन्नतिज्ञान, नक्षत्रादिका दूरत्व- निकल जाने पर चक्रका छिद्र बन्द कर देना आवश्यक निरूपण आदि विविध विषयोंके निर्धारण करनेके लिये है। तव उस जल द्वारा प्रतिरुद्ध द्रवरस और अपने | ये यन्त्र विशेष उपयोगी है। गुरुत्वके घलसे दूसरी ओर अर्थात् जिस वगल जल है, १३ फलकय'त्र (Rectangle)-चतुरस्र और चतुष्कोण उस वगल जानेमें समर्थ नहीं होता। इसलिये वन्द छिद्र