पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/५१२

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यन्त्र ५०६ साहाय्यसे ज्ञानवान व्यक्तिमात्र ही आकाशके, भूतलके मुख रखे दो धातुमय आधारों पर समान दो उपयुक्त अथवा जलगर्भके पदार्थमात्रको दृष्टि-गोचरीभूत कर गहरमें शलाकाका दोनों छोर लगाना चाहिये। ये दोनों उसका दैव्य, विस्तार और रेखादिका परिमाण जान छोर इस तरह वरावर मोटा और गोलाकार हो, कि इस सकते हैं। बुद्धिसे यह निष्पन्न होता है इससे हो भास्क शलाकाको एक बार समधरातल रूपमें स्थापित कर राचार्य ने इसको धीयन्त्र कहा है। दूरवीक्षणको धुमानेसे उसका समतलत्व विनष्ट न हो। "वशस्य मूलं प्रविलोक्य चाय तत्स्वान्तर तस्य समुच्छ्यञ्च । इस शलाकाके एक छोरमें दो स्क्र या पेच रहते हैं, उसके एकको भिन्न भिन्न ओर घुमानेसे शलाकाका छोर यो वेत्ति यष्ट्य व करस्थयासौ धीयन्त्रवेदी वद किं न वेत्ति ।। (यन्त्राध्याय ४१) उन्नतानत हो सके इसलिये शलाकाको समधरातलरूप- से रखनेते और कोई कसर नहीं रह जातो । दूसरे स्क- दूरस्थित वांसकी चोटो और जड़ देख कर हाथके को घुमानेसे शलाकाको पाश्वगति उत्पन्न होती है और यन्त्रके साहाय्यसे जो अपने दूरत्व और उन्नतांशका उसके द्वारा शलाकाको इच्छानुरूप पूर्व या पश्चिम ओर निरूपण कर सकते हैं, वे इस धीयंतके साहाय्यसे खगो- व्यवस्थापित किया जा सकता है। इस तरह चतुराईसे लस्थ प्रह नक्षत्र आदिके और जलगर्भके प्रतिविम्वित शलाका ठोक समतलभावसे पूर्व-पश्चिममें रखनेसे 'चित्रके मान आदिका निर्देश करनेमें सम्यक् पारदर्शी याम्योत्तर रेखासूचक (पूर्व निरूपित और दूर पर संस्था- होते हैं। इस यन्त्रके व्यवहार करते समय पादनिम्नस्थ पित ) किसां चिन्हसे दूरवीक्षणको यथास्थान रखना, भूमि सदा ही समतल हो। जिससे उसके घुमानेसे दूरवीक्षणकी समरेखा ठीक समतल भूमिमें खड़े हो कर यष्टिके मूलदेशमें नेत्र । याम्योत्तर रेखाको लक्ष्य कर घूम सके। रख उत्तर ध्रुव नक्षल पर उसका अग्र भाग लम्वभावसे ___ दूरवीक्षणके भीतरी मध्यरेखाको लम्वभावले और झुला कर संलग्न करनेसे पष्टि जिस रूपमें हो, उस नेत्रमुकुरके अधिश्रयणमें कितने हो तारोंस वने एक पूर्व- पष्टिके अग्र और मूलसे दो लम्बो सरल रेखायें भूमि पर पश्चिम व्यासयुक्त और कई दक्षिणोत्तर रेखा विलम्बित खींचो। खींची हुई दोनों लम्बी रेखाओंमें जो स्थान | एक तारचक्र स्थापित रहता है। उसमें एक तार मध्य- है उसका समकोण त्रिभुजको भुजा और दोनों लम्वका स्थलमें समधरातलरूपसे रहता है और दूसरे ५ या ७ अन्तर या वियोग फलकाटि और पप्टिका परिमाण ही परस्पर वरावर दूरी पर लम्बभावसे स्थापित रहते हैं। कर्ण है। कोटिको यष्टि (१२ उगल ) द्वारा गुणांकर ये संयोजित तारमण्डल स्क्र. द्वारा पार्श्व की ओर धरा- भुजसे भाग देनेसे पलभा होती है। इसको अनुपात:- तल रेखा क्रमले चालित हो सके और यह चालन द्वारा . भुज : कोटि : १२ उंगल (यष्टि) पलभा। लम्वभावसं स्थित तारोंके वीचके तारको इस तरह रखा १५ याम्योत्तरभित्तियन्त्र ( Transit circle ) जा सके, जिससे उस दूरवीक्षणकी मध्य रेखा द्वारा याम्योत्तररेखामें (Meridian line ) किसां ज्योतिष्क दर्शनरेखा भी अवच्छिन्न हो। जब दूरवीक्षण ठोक केन्द्रका आगमन होनेसे उसी आगमनको अति उत्तर-दक्षिण ओर सूचक रेखा क्रमसे घूमती है, तव यह क्रम कहा जाता है। ज्योतिष्क अतिक्रमकाल-निरूपण | वोचका तार भी ठीक याम्योत्तररेखाके साथ एक धरा- करनेके लिये जो यत्र व्यवहत होता है, उसका याम्यो तलस्थ हो कर सञ्चालित होता है। अतएव सूर्य या तरभित्ति या अतिक्रम-यंत्र (Transit instrument)| चन्द्रमण्डलके एक ओर या उसके विपरीत छोर अथवा कहते है। ऐसे समधरातल पर दो स्तम्भ खड़ा करो कोई नक्षत्र, जिस जिस समयमें इस दूरवीक्षणके वीचके जहां जरा भी ऊंच नीच न हो। उस पर एक शलाका, तारके साथ संयुक्त (सटता) और उससे वियुक्त और एक दूरवीक्षणयंत्र दृढरूपसे रख दो। ईट (हटता) दिखाई दे; उस उस समय नाक्षत्रिक काल- या लकड़ीके मजबूतीसे वने दोनों अवलम्वनके. ऊर्ध्व मान घड़ी द्वारा निरूपण करनेसे उन दोनों समयके Vol. XVIil, 128