पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/५३४

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यमुना "इद वृन्दावन रम्य मम धामेव केवग्नम् । विरहसे दुःली देख उन्मादन अस्त्रको चलाया। इस अस्त्र- तब गे पशवः साक्षात् वृक्षाः कीटा नराधमाः ।। के प्रभावसे महादेव अत्यन्त उन्मत्त हो सतीको बारम्बार ये वसन्ति ममाधिष्ट मता यान्ति ममान्तिकम्। स्मरण कर कानन या सरोवरमें घूमने नगे; किन्तु कुछ। तत्र या गोपपत्ताच निवसन्ति ममालये। शांति लाभ न कर सके, इसके उपरान्त अत्यन्त दु:खित हो, योगिन्यस्तात एवं हिमम देवाः परायणाः। पर कालिन्दीके जलमें गिर पड़े। ऐसा होते ही कालिन्द पञ्चयोजनमेव हि वन में देहरूपकम् । का जल जल उठा और काला हो गया ! तबसे कालिन्दी का जल अजनके समान काला हो गया है। और यह कालिन्दीय' सुषुम्नाख्या परमामृतरूपिणी ॥" वसुन्धराका केश भी कहा गया है। यह नदी अत्यन्त (पद्मपु० पातालख०७ अ.) पुण्यतीर्थ कहलाती है। विष्णुपुराणमें लिखा है, कि स्वायम्भुव मनुपुत्र प्रिय- "यदा दक्षता ब्रह्मन सती यातां यमक्षयम् । प्रत-तनय ध्रुव यमुनातीरके पवित्र मधुवनमें आ कर विनाभ्य दक्षयज्ञ विचचार त्रिलोचनः || तपस्या करने लगे। यहां शनु धनने मथुरा पुरो निर्माण ततो वृषध्वज दृष्टवा कन्द कुसुमायुधः। किया था। (विष्णु० १११२) मथुरा देखो। अपनोकं तदानेन उन्मादेनाभ्यताइयत् ॥ __बहुत पुराने काल में भी इस नदीका माहात्म्य जन- ततो हरा शरेणाथ उन्मादेनाभिताड़ितः। साधारणमें फैला हुआ था। प्राचीन आर्य हिन्दू यमुना विचचार तदान्मक्तः काननानि सरांसि च ॥ किनारे उपनिवेश स्थापित कर यागादि सम्पन्न करते स्मरन सती महोदेवस्तथोन्मादेन ताड़ितः। थे। ऋग्वेदसंहितार्म और ब्राह्मण आदिमें उसका न शर्म लेमे देवर्षे वाणविद इव द्विपः ।। यथेष्ठ उल्लेख पाया जाता है। उक्त संहिताके ११५२।१७ ततः पपात देवेशः कालिन्दीसरित मुने। मन्त्र में लिखा है,- निमग्ने शङ्करे चापे दग्ध्वा कृष्णात्वमागता ।। "सप्तसप्तजनशक्तिमान् मरुत् । एक एक आदमी तदा प्रभृति कालिन्द्या सुगमननिम जलम् । मुझको एक सौके हिसावले धन प्रदान कीजिये। मैं आस्पद' पुण्यतीर्थानां केशपाशमिवानेः ॥" यमुना किनारे बैठ कर प्रसिद्ध गोधन प्राप्त करू।" (वामनपु० ६ अ०) मूलके " सप्त मे सप्त शाकिन एक एकाशताददुः।" ज्येष्ठमासकी शुक्ला द्वादशीको यमुनामें स्नान कर' से पुराणप्रसिद्ध इक्यावन मरुद्गणका उद्भव असम्भव दान आदि धर्म कार्य तथा पिण्डदान श्राद्ध आदि कल्पना नहीं है। यमुना किनारेको गायें-उस वैदिक पितृकार्य करनेसे सर्वा प्रकारसे मङ्गल होता है। युगमें भी प्रसिद्ध थी, अतएव यमुना किनारे भगवान्को "परस्य शुक्लद्वादश्यां स्नात्वा वै यमुनाजले। (श्रीकृष्ण की) गोधन रक्षा और गोपालन नितान्त कटकी मथुराया हरिं दृष्ट्वा प्राप्नोति परमां गतिम् ॥ कल्पना नहीं' कही जा सकती है। इन्द्रके सन्तोप- यमुनासलिले स्नातः पुरूषो मुनिसत्तम । विधानके लिये यज्ञ न करनेसे इन्द्रने कृष्ण के विरोधमें न्येशामुलामले पक्षे द्वादश्यामुपवासकृत् ॥ अर्थात् सुगभोर वर्षा कर जलप्रलय तथा कृष्णका गाय समभ्यर्चान्युत' सम्यक् मधुरायां समाहितः। तथा गोपोंकी रक्षाके लिये गोवर्द्धन धारण करनेकी मश्वमेधस्य पाल्य प्राप्नोत्यविकलं फलम् ॥" . वात भी अयौक्तिक नहीं रही जा सकती। (विष्णु० ६.5 अ०)। पूर्वोक्त मन्त्रसे यह भी अनुमान होता है, कि गोधन- पद्मपुराणके पातालखण्डमें लिया है, कि सुषु- प्रिय आर्य्य हिन्दू यमुनातर पर आ कर बस गये थे। म्नास्या पराशक्ति वृन्दावनमें यमुनाके रूपमें अवस्थित दूमरे २८१६ मन्दसे सुवास राजाके यज्ञके दान- । स्तवमे लिखा है, कि "इन्छने इस युद्धमें भेदका विनाश