पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/५३९

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

'ययाति पुरुने पिताकी बात सुन कर कहा, 'माप जो कुछ किया इस कारण तुम्हारे सभी पुण्यं क्षय हो गये। अतः आज्ञा देंगे, उसका मैं सहर्ष पालन करूंगा। मैं आपका अब स्वर्ग में तुम्हारे रहनेका स्थान नहीं । आज तुम देव- बुढ़ापा और पाप दोनों ग्रहण करूंगा।' पोछे राजा लोकसे पतित हुआ।' ययातिने कहा, 'देवराज ! देव, ययातिने शुक्रका स्मरण कर पुरुके शरीरमें अपना बुढ़ापा, ऋषि, गन्धर्म और मनुष्यके प्रति अपमानना प्रयक संक्रामित किया और उसकी जवानी आप ले ली। । यदि मेरो स्वर्गभोग शेष हो गया, तो मुझ पर ऐसी ययातिने जवान हो कर विषयसुखमें हजार वर्ष । कृपा कीजिये, जिससे मैं देवलोकसे परिभ्रए हो विताये। मनन्तर उन्होंने पुरुको बुला कर कहा, 'मैंने : साधुमण्डलीमें वास करू ।' इन्द्रने इसे स्वीकार करते तुम्हारे यौवनसे अभिलाष और उत्साहानुसार हजार वर्ष हुए कहा, "तुम्हारो अभिलाष पूर्ण होगा, परन्तु याद विषयसुख भोगे, परन्तु जिस प्रकार आगमें घी देनेसे वह ! रखना फिर कभी भी श्रेष्ट व्यक्तिके प्रति अवका प्रकट न बुझती नहीं, वरन् प्रदीप्त हो उठती है, उसी प्रकार काम्या : काय.' करना । वस्तुके उपभोग द्वारा कभी कामकी निवृत्ति नहीं होती, राजा ययातिने जव देवराजसेवित पुण्यलोकका परि- पहिलो दिन तो हो जाना है। अतः मालम पडता त्याग कर पतित हो रहे थे, उस समय रोजागेवर है, कि पृथ्वी पर जितने धान, जौ, सोने और स्त्री आदि । अष्टकने उन्हें देख कर कहा 'राजर्षे! आप कौन है और विषय-सुख हैं उनसे कभी किसीको तृप्ति नहीं हो सकती, किसलिये स्वर्गसे च्युत हुए हैं ? अतएव अब विषय सुख भोगना व्यर्थ है, उन्हें छोड़ देना ययातिने संक्षेपमें अपना परिचय देते हुए कहा, 'मैंने ही उचित है। जिस तृप्याको मूर्ख व्यक्ति छोड़ नहीं, सभी प्राणियोंका अपमान किया था, इस कारण मेरा सकता, वुढ़ापा होने पर भी जिसका क्षय नहीं होता ( पुण्य क्षय हो गया और मैं सुर सिद्ध और ऋषिलोकसे और जो प्राणविनाशक रोगस्वरूप है, उस तृष्णाका जब ' परिभ्रष्ट हो पतित हो रहा हूं। मैं तुम लोगोंसे वयो- तक परित्याग न किया जाय, तब तक मनुष्य सुखी नहीं, ज्येष्ठ ह', इस कारण तुम लोगोंका अभिवादन नहीं हो सकता। मैं विषयासक्त था, उसमे मेरे हजार वर्ण किया। मोंकि, जो व्यक्ति जन्म द्वारा वृद्ध होता है, वीत गये, फिर भी विषय तृष्णा न बुझी, दिन पर दिन ! वह द्विजातियोंमें पूजा जाता है । अष्टकने कहा, 'शास्त्रमें बढ़ती ही जाती है, अभी मैं उसका परित्याग कर पर लिखा है, कि जो विद्या और तपोवृद्ध हैं, वे ही विजा- ब्रह्ममें मन लगाऊंगा। यह कह कर ययातिने पुरुको यौवन तियोंमें पूज्य हैं।' इस पर ययाति बोले, 'विद्या और लौटा दियो और वे स्वयं वानप्रस्थ आश्रम प्रहण करके | तपस्यादि कर्मके अहङ्कारको पण्डितोंने नरकजनक पाय कठिन तपस्या करने लगे। बताया है। उस अहङ्कारके उद्धत व्यक्ति ही वशवत्तों ___ ययाति पुरुको राज्याभिषिक्त कर कठोर तपस्या होते हैं, साधु लोग नहीं होते। पूर्वकालीन सजन ऐसे करने जंगल चल दिये। उसी तपस्याके फलसे वे वर्गमें ही थे, पर मैं वैसा न हुआ, इसी कारण स्वर्गस्युत गये और यहां कुछ दिनों तक इन्होंने सखसे वास होता है। मेरे पुण्यरूप प्रचुर धन जमा था जिसे मैंने किया। दपके कारण ही खो दिया, अभी लाख उपाय करने पर खर्गमें रहते समय एक दिन इन्द्रने इनसे पूछा भी वह मुझे नहीं मिल सकता । जो मेरी ऐसी गति देख 'जब तुमने सभी कर्म करके तपस्यामें मन लगाया, उस कर आत्महितसाधनमें निविष्ट होवें, वे ही विक्ष और धीर है।" समय तुम्हारे समान तपस्वी और कौन था?' ययातिने कहा, 'देव, मानुष, गन्धर्न और महर्षि इनमें कोई भी मेरे पीछे अष्टकोने ययातिसे अनेक प्रश्न किये जिनका समान तपस्वी न था। इस पर इन्द्र वोले, 'तुमने दूसरेका उन्होंने ठीक ठोक उत्तर दे दिया। अनन्तर भष्टकोने अपना अपना पुण्य दे कर उन्हें स्वर्ग जाने कहा। परन्तु प्रभाव बिना जाने हो अपनेको वडा बताया आर जो तुमसे श्रेष, समान और अधम है, सवोंका अपमान ययातिने उनका पुण्य लेना बिलकुल खाकार न किया।