पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/५४३

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५४० यव बाद डा० कुनेमनने उसमें चीनीका अस्तित्व स्थिर । शुक्ला चतुर्थीको एक दूसरेके शरीर पर जौका चूर्ण फेक. किया है। नेका नियम है। इस चतुर्थीको यवचतुर्यों कहते हैं। जौका जुस प्रति दिन पीना बहुत स्वास्थ्यकर है। यह धानके जैसा लक्ष्मी देवीका एक निदर्शन है। इसी यह थोड़े हो समयमें पच जाता है। इसीसे यह रोगी. कारण प्राचीन मुद्रादिमें 'यवगुच्छ' का चिह दिया का प्रधान पथ्य बतलाया गया है। अजीर्ण रोगमें भूने जाता था। हुए जौका सत्तू खानेसे बहुत लाभ पहुंचाता है । जौका राजनिघण्टके मतसे अशूकमुण्ड यव वलप्रद, वृष्य और काढा विशेष स्निग्धकर है। पंजाब प्रदेशमें जौके पत्ते । मनुष्योंके वीर्य और घलको बढ़ानेवाला है । भावप्रकाशके और डंठलको जला कर वह क्षार शरवतके साथ पीते हैं | मतसे इसका संस्कृत पर्याय-यव, सितशूक, निःशूक, इससे एक प्रकारको पेष्टी मद्य ( Malt ) बना कर उसे अतियव, तोक्न और स्वल्प यय। इसका गुण-कपाय- यूरोप और अमेरिकावासी चिकित्सकोंने स्नायविक | मधुररस, शीतवीर्य, लेखनगुणयुक्त, मृदु, मणरोगमें दोनल्यग्रस्त और सपूय विस्फोटकके कारण दुर्गल तिलके समान उपकारी, रुक्ष, मेघाजनक, अग्निवर्धक, ध्यक्तियोको सेवन करने कहा है। वह मद्य निम्न कटुविपाक, अनभिष्यन्दी, स्वरप्रसादक, वलकारफ, गुरु, प्रकारस बनाया जाता है। अत्यन्त वायु और मलवद्धक, वर्णप्रसादक, शरीरकी २से ४ औंस बडारित और सूसे जौको प्रायः १सेर ' स्थिरता सम्पादक, पिच्छिल तथा कण्ठगतरोग, चर्मरोग, जलमें सिद्ध कर उसका काढा छान ले। पीछे उसमें कफ, पित्त, मेद, पीनस, श्वास, कास, उरुस्तम्भ, रक्तदोष मादक वृक्षविशेष ( Hops) की छाल वा जड मिला। और पिपासानाशक । इस यवसे अतियथ हीनगुणयुक्त देनेसे उसमें फेन निकलेगा। इसीको पैटी मद्य कहे तथा अतियवसे तोक्न भी गुणहीन होता है। दो वर्षसे हैं, यह बहुत वलकारक है। ऊपर होने यव पुराना होता है। पुराना जो गुणकारक नौकी भूसी गाय, घोड़े आदिको खिलाई जाती है। नहीं है। नये जौमें ही ऊपर कहे गुण पाये जाते हैं। कभी कभी उसका सत्त भी दिया जाता है। घोड़ोको पुराना जौ नीरस और रुक्ष होता है। खिलानेके लिये जौ नामक एक प्रकारकी निकृष्ट श्रेणीका धर्मशास्त्रसे मालूम होता है, कि हविष्य कार्यमें जो यव व्यवहत होता है। वहुत पवित्र है। नौसे ही हविष्य-कार्य करना होता ऊपरमें जिस पैप्टीमद्य ( Halt liquor ) का विषय हैं। जौसे यदि हविष्य न किया जाय, तो धानस भी लिखा गया, पंजाववासी आज भी जौसे एक प्रकारका किया जा सकता है। मद्य बनाते हैं। प्राचीन संस्कृत ग्रन्थमें यव-सुराका "हविष्येषु यवा मुख्यास्तदनुव्रीहयः स्मृताः । माषकोद्रवगौरादि सर्वालामेऽपि वर्जयेत् ॥" उल्लेख देखा जाता है। हिन्दूलोग इस यव मद्यके वाव- (कात्यायनसंहिता १०) हारसे विशेष अभ्यस्त थे। वैद्यकशास्त्र में इस मद्यकी प्रस्तुत प्रणाली और प्रयोगविधि लिखी है। स्मार्सके मतसे जिस समय नया जो होता है, उस मद्य शब्द देखो। समय नये जौसे पितरोंके उद्देश्यसे श्राद्ध करना होता ऊपर कह आये हैं, कि हिन्दूके धर्मसंक्रात सभी | है। यह नित्यश्राद्ध है। जो यह श्राद्ध नहीं करता उसे पापभागी होना पड़ता हैं। (आदतत्त्व) क्रियाकलापोंमें यवका व्यवहार होता है। ज्येष्ठ मासमें मङ्गलचण्डीके व्रतके समय हिन्दरमणियां जौ खाती हैं। सधवा स्त्रीको श्राद्ध करनेके समय तिलके बदले लक्ष्मीपूजाके अध्य के लिये जौकी विधि है। इसी यवका व्यवहार करना चाहिये। क्योंकि, शास्त्रमें लिशा प्रकार विवाह, अन्त्येष्टि, श्राद्ध आदि कार्यों में तथा | है, कि जबतक स्वामी जीवित रहे, तब तक स्त्रोको श्राद्ध- यागादिमें इसकी व्यवस्या देखी जाती है। वैशाखमासमें | कालमें तिल और कुश नहीं छूना चाहिये। अतः उसके