पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/५४९

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५४६ 'यवन , व्याकरणकार पाणिनिने भी यवन शब्दका उल्लेख सम्राट अशोकके समयमें यह लिपि सिन्धुके पश्चिम किया है। उन्होंने सम्भवतः आसुरीय या फारसवालोंको । गान्धारदेशमें प्रचलित थी। सम्राट अशोकने एक शिला- 'लक्षा कर ही लिखा होगा । हिन्न जाति अपने पड़ोसी लिपि इस भाषाकी भी खुदवाई थी, अध्यापक लासेन- योनीयोंको Yavan शब्दसे पुकारा करती थी। का मत है, कि 'भारतके पश्चिम देशवासी बणिकमात्रको यह किसीसे छिपा नहीं, कि काल पा कर यही यवन | भारतीय हिन्दु यवन हो कहा करते थे। पहले, अरब या योन (आइओनीय ) जाति आसीरीय तथा फारस पीछे फिनीकीय और उसके पीछे वाहलिक राज्यमें आये आदि देशोंमें जा कर बस गई है। महाभाष्यकार यूनानी भी यवन नामसे पुकारे गये थे। पतञ्जलिने (पा ।।३ सूत्रके ) भाष्यमें लिखा है, कि | ___पाणिनि-ध्याकरणकी काशिकावृत्तिमें यवनाः शयाना। "परोक्षे च लोकविज्ञाते प्रयोक्त दर्शनविषये लङवक्तः भुखने' इस तरह लिखे रहनेसे स्पष्ट ही अनुमान होता है, व्याः अरुणद् यवनः साकेतम् । अरुणद् यवनो माध्य. कि यवन सोते ही सोते खाते थे। इस पद्धतिविशेष .मिकान ।' इससे मालूम होता है, कि यवन यूनानियोंसे - द्वारा भी यवन एशियावासी युनानी ही मालूम होते हैं। भिन्न जातिके थे। क्योंकि, यूनानी यवनोंके मध्य | पश्चिमोय पण्डित बेनफे रेणो, ( Renaud) और बेवर भारत पर आक्रमण करनेकी बात कहीं नहीं | आदि लोग यवन शब्दसे योनवासी यूनानी हो समझते मिलती। अमरकोषमें यवनाश्व नामसे एक तरह हैं। जिस योनवासी यनानियोंने भारतमे आ कर अपना के घोड़े का वर्णन आया है। टीकाकारमें इसका विस्तार किया था, उनका संक्षिप्त इतिहास नोचे दिया 'जव' दूतगामी अर्थ में ही प्रयोग किया है। किन्तु एक | जाता है। ही स्थानमें शकदेशीय अश्व, कम्बोजदेशीय अश्व आदि ! इतिहास पढ़नेसे मालूम होता है, कि समृद्धिशाली प्रसिद्ध अश्च जातिका उल्लेख रहनेसे यवनाश्व भी प्राचीन यूनानियों के विजयस्पद्धी हो अथवा वाणिज्य सम्भवतः यवनदेशीय अश्वके अामें प्रयुक्त हुआ जान लालसास एशिया ओर युरोपके नाना स्थानोंमें अपना पड़ता है। अरवी अश्व या घोड़े बहुत दिनोंसे जगत्- प्रभाव विस्तार किया था। इसी तरह यूनानके रहने- विख्यात थे। इस अरव देशसे भारतका वाणिज्य वाले प्राचीनतम हेलेनों, दोरीय, योनीय, इटो- ध्यवसाय भी बहुत दिनोंसे चला आता है। अतएव | लिय, लास्गीय आदि विभिन्न शाखाओंमें विभक्त अरवदेशीय अश्व शब्द ही यवनाश्वक नामसे अरवी | हो कर पंःशयाके स्थान-स्थानमें उपनिवेश स्थापित घोड़े के अर्थमें प्रयुक्त हुआ होगा । बहुतेरे अरबके | किया था । घेमिन् देशको ही 'यवन' का अनुमान करते हैं। पाणिनि-_ के समय पञ्जाबके किसी किसी अंशम यवनानो लिपि * Indische alterthumskunde. p. 729 भी प्रचलित थो*। पाणिनि देखो।

  • "पारसिकांस्ततो जेतु प्रतस्थे स्थलवमना ।

इन्द्रियाख्यानिव रिपुस्तत्त्वज्ञानेन संयमी॥

  • दशकुमारचरितके तीसरे उच्छ्वासमें हमें दिखाई देता है,

यवनीमुखपमानां सेहे मधुमदन वालातपमिवाब्जानामकालजलदोदयः॥" कि मिथिला-राजदरबारमें श्वमिति या खानिति नामक एक यवन (खु ४६०-६१) जौहरी (होरेके व्यवसायी) आया था। साधारणका विस्वास है, यहां महाकवि कालिदास फारसी-स्त्रियोंको 'यवनी' शब्दसे कि उस समय भारतमें यवन या यूनानी नाममात्रके भी न थे। मुसलमानों के द्वारा भारतविजय करनेसे बहुत पहले 'अरबी व्यव अभिहित किया है। मालविकाग्निमित्रके "स सिन्धोदक्षिणं सायी बाणिज्यके लिये भारतमें आया करते थे । सम्भवतः यहां रोघसि चरत्नश्वानीकेन यवनेन प्रार्थितः । ततः उभयो सेनयो महा- भी अरबी बाणिज्यका हो उल्लेख किया गया होगा । (Lassen नासीत् संमद्द।।" इस उक्तिसे भी सिन्धुके दक्षिणतीखासी | कोई अश्वारोही जाति ही समझ पड़ती है। Indische Alterthumskunde, p. 730) नाम-