पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/५६१

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यवन इतिहास पढ़नेसे मालूम होता है, कि घालिक साम्राज्य है। बोधायन-स्मृतिमें गोमांसखादक और धर्माचार- के उत्तरांश अक्सियाना नामक नगरों में शक जातिके वंश होन और विरुद्ध वहुभाषी हो म्लेच्छ कहे गये हैं। रहते थे। यह शक बहुत दिनों तक अखमनि और पीछे म्लेच्छ और यवन एकार्थवाची हो गये हैं। इससे माकिदनीय शक्तियोंसे युद्ध करने में लिप्त थे। ईसाके पूर्व प्रायश्चित्ततत्त्वमें लिखा है, कि "सर्वाचारविहीनस्य १६५वें वर्ष में होगा-नु द्वारा भगाये जा कर युचियोंने सन्दि) म्लेच्छ इत्यभिधीयते । स एव यवनदेशोद्भवो यवनः।" याना नामक स्थानों पर कब्जा करनेके बाद राज्यच्युत वृद्ध चाणक्यने यवनोंको सवसे नीच कहा है। यह शकोंने वालिक पर आक्रमण किया। इसी समयसे अछूत हैं । इनके साथ एक साथ उठने, वैठने और एक वालिकके यवन-साम्राज्यके अधःपतन तक यवन साथ भोजन करनेसे जाति नष्ट होती है। राजाओंको पारद और शको के साथ युद्ध करना पड़ा ___ यह यवन गहिताचार निवन्धन हिन्दूशास्त्रकारों के था। ईसाके पूर्व १२०वें वर्णमें युचियो'ने वाह लिफ लिये जितने ही निन्दित क्यों न हो; किन्तु ज्योतिः पर अधिकार किया। इसके प्रायः एक सौ वर्ण वाद पञ्च | शास्त्रमें विशेष प्रभुत्व रखनेसे चे जनसमाजमें सुप्रसिद्ध युचि शाखाके एकतम कुषणों ने विशेष प्रभावान्वित हो। थे। वृहत्संहितामें लिखा है, कि ये यवन म्लेच्छ होने कर परोपनिसस पार कर कावुलके यवनशासनको समूल पर भी ऋषियोंकी तरह पूजित हुए थे।x नष्ट कर समग्न उत्तर-भारतमें अपना राज्य-विस्तार वराहमिदिरने यवनाचार्य नामके एक ज्योतिषीका किया था। उल्लेख किया है। भट्टोत्पल वृहजातकके (GIE) श्लोक- इस सुदीर्घकालव्यापी विप्लवसें पड़ कर बलहीन की टीकामें लिखा है, कि 'यवनेश्वर स्फूर्जिध्वज (सूची- यवन आत्मगौरवको विभाजित कर शक-संस्रव में लिप्त ध्वज)ने शक-कालके बाद दूसरे पक ज्योतिःशास्त्रकी रचना थे और क्रमशः वे भारतीय आर्य जातिके साथ मिल की थी।' डाक्टर कर्ण इसको Aphrodisius कह जानेकी चेष्टा करते थे। सिक्को' पर आर्य-भाषाका रहना कर सन्देह करते हैं । वराहमिहिर इनके पूर्ववत यवना- इसका प्रमाण है । यह यवनगण हिन्दुओं के संसर्गम पड़ चार्योंके मतसे उद्धत कर गये हैं। सिवा इसके स्फूजि- कर सम्भवतः सिक्कों पर (हिन्दृका पवित्र) त्रिशूल और सांदके चिह्न अङ्कित करते थे। क्रमशः जितने ही यवन * "पोपडकाश्चोद्रविड़ाः काम्बोजा जवनाः शकाः । निर्वल होते जाते थे, उतने उनके हृदय में हिन्दुभाव जाग पारदा पहलवा चीनाः किराता दरदाः खशाः ॥ उठता था। शक कुपणो से पराजित होनेके वाद हिन्दु मुखवाहूरुपजानां या लोके जातयो बहिः। स्थानमें निर्विरोध अधिवासियोंके सहवास कर जिस म्लेच छवाचश्चार्यवाचः सर्वे ते दस्यवः स्मृताः ।।" तरह हिन्दुओं में परिगणित हुए थे उसी तरह यवनगण (मनु १०४४-४५) भी पहले शकसंवमें लिप्त हो कर पीछे महान् हिन्दू + बौधायनस्मृतिमें लिखा है:- वासभूमि आर्यावर्त्तके अधिवासी हो सनातन आर्य "गोमांसखादको यश्च विरुद्ध बहु भाषते । धर्मका पालन कर गये हैं।* बहुतेरे यवनों ने धौद्ध घाचारविहीनश्च म्लेच छे इत्यभिधीयते ॥" (प्रायश्चित्ततत्त्वधृत बौधायन-बचन) प्रधान समयमें बौद्धधर्मका आश्रय लिया था। मनुसंहिताम इस ययन जातिको डाकू कहा गया पा"चपडालानां सहस्रश्च सूरिभिस्तत्त्वदर्शिभिः । एको हि यवनः प्रोक्तो न नीचो यवनात् परः।" (वृद्धचाणक्य ८1५)

  • कालिदासने शकुन्तला और विक्रमोर्वशी आदि नाटकों में

x"म्लेच्छो हि यवनास्तेष सम्यक शास्त्रमिदं स्थितम् । 'किराती चामरधरी यवनी शस्त्रधारिणी' या 'वनपुष्पमालाधारियी'- 'यवनी' प्रतिहारिणीका उल्लेख रहनेसे स्पष्ट ही दोनोंका सम्बन्ध __ऋषिवत् तेऽपि पूज्यन्ते किं पुनवेदविद् द्विनः ।" (वृहत्संहिता २०१५) सूचित होता है।