पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/५६५

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५६२ · यवविन्दु-यवश्राद्ध यवबिन्दु (सं० पु०) वह होरा दु सहित यव- यवमय ( स० त्रि०) यवस्य विकारोऽवयवो वायव रेखा हो। कहते हैं, कि ऐसा होरा पहननेसे देश छूट ( असंशायां तिलयवाभ्यां । पा ४।३१४६) इति मयट् । यव- जाता है। निर्मित, जौका बनाया हुआ। यववुस (सं० पु० ) यवका तुस, जौका भूसा। यवमात्र (स त्रि०) यवसदृश, जौके जैसा । यवमण्ड (सं० पु० ) यवकृतः मण्ड | जौका मांड जो | यययवागुका (स. स्त्री०) यवनिष्पादिता यवागुका । नये ज्वरके रोगीको पथ्यके रूपमें दिया जाता है। वैद्यक- यवकृता यवागू, जौका मांड। के अनुसार यह लघु, ग्राहक और शूल तथा लिदोपका । यवयस (स० क्ली० । लक्षद्वीपका एक वर्ष । नाश करनेवाला है। (भाग०५२०१३) यवमत् (स त्रि०) यवः विद्यतेऽस्य मतुप् ( मादुप- यवयु ( स० त्रि०) यवेच्छु, जौका चाहनेवाला। धायाश्च मतोर्वोऽयवादिभ्यः । पा ८२२६ ) इति सूत्रेण मतो यवलक ( स० पु० ) एक प्रकारका पक्षी। इसका मांस मस्य चकाराभावः। यवविशिष्ट, यवयुक्त। सुश्रुतके अनुसार मधुर, लघु, शीतल और कसैला होता यवमती ( स० स्त्री० ) एक वर्णवृत्त । इसके विपम , हो चरणों में रगण, जगण, जगण होते और सम चरणोंमें यवलास ( स० पु०) यवात् लासो यस्य । स्वक्षार, जगण, रगण और एक गुरु होता है। । जवाखार । यवमद्य ( स० क्ली०) यवकृर्त मद्य । जौका बनाया श्ववक्त ( सं त्रि०) जौकी सी ककी रारह नोक्दार । हुआ मद्य, जौकी शराव । गुण-गुरु और विष्टम्भी। - (राजनि०)। यववर्णाभ (सं० पु०) सविष मण्डूक जातीय कीट । सुश्रुतके अनुसार एक प्रकारका जहरीला कीड़ा। यवमध्य ( स० क्ली० ) यववत् मध्यं यस्य । १ एक । यवविकृति (स. स्त्री०) प्रमेह रोगमें हितकर जौकी वनी प्रकारका चान्द्रायणव्रत। लिट्टो आदि । "शिशचान्द्रायण' प्रोक्त' यतिचान्द्रायणं तथा। यवमध्य तथा प्राक्त तथा पिपीलिकाकृति ॥" यवशक्तु ( स० पु०) यवस्य शक्तु । जौका सात्तू । यह (प्रायश्चित्ततत्त्व) । रुक्ष, लेखन, अग्निवर्द्धक, कफनाशक और वायुवक इस चान्द्रायणा पूर्णिमाके दिन सायं, प्रातः और समान मात्र माना गया है । ( राजनि० ३ परि०) | यवशकरा (स. स्त्री० ) सिद्धयवकृत शर्करा, जौका मध्याह्न तीनों समय स्नान कर पन्द्रह कौर भोजन करना | होता है। पीछे कृष्णा प्रतिपद्से एक एक कौर भोजन । सत्तु । कम करना होगा। वादमें अमावस्याके दिन उपवास | यवशस्य (सं० क्ली० ) यवधान्य, जौ। | यवशाक (सं० पु. क्ली०) शाकभेद, एक प्रकारका साग । कर फिर शुक्लाप्रतिपद्से एक एक कौर भोजन बढ़ाना | यह वैद्यकके अनुसार मधु', रुक्ष, विष्टम्भी, शीतवीर्य होगा। इस प्रकार फिर पूर्णिमाको पन्द्रह कौर भोजन और मलभेदन माना जाता है। (चरक सू० २७ अ०) करना होगा। ऐसे कृच्छ्रसाध्य चान्द्रायणको यवमध्य यवशिरल् (सं० त्रि०).१ यवान, जौकी सीक। २ यव. कहते हैं। (मनु० १४२२७-१८) ग्रीच। (पु०) २ यज्ञभेद, पांच दिनों में समाप्त होनेवाला एक प्रकारका यज्ञ । “यवमध्यः पञ्चरात्रो भवति" ( शत- यवशक (सं० पु.) यवानां शूका कारणत्वेनास्त्यल्य अर्श आधच् । यवक्षार, यवाखार । पथबा० १३६१)। (त्रि०) ३ यवाकारमध्य, जौका यवशूकज (सं० पु०) यवशकात् जायते जन ड । यवक्षार, वीच । (सुश्रुत चि० १०) जवाखार। यवमध्यम ( स० क्ली० ) यवमध्य, जौका वीच । यवश्राद्ध (सं० क्ली०) यवकृतं श्राद्ध। एक प्रकारका यवमन्ध (सपु०) जौका सत्त ।