पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/५७

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मुद्रातत्त्व (भारतीय) सिन्धुराजधानी ब्राह्मणावाद, मुलतान, तक्षशिला, जावुलि , के अनुकरण पर यवनराज पन्तलेवन और अगथोकेलस स्तान (गान्धार) और सपादलक्ष वा शिवालिकका (१६० ७० पू०) की मुद्रा प्रस्तुत हुई हैं। अधिपति बतलाया गया है। मुद्रालिपिकी आकृतिके भाजु नायन। अनुसार वासुदेवको ७वीं शताब्दीके राजा कह सकते हैं। एक समय पंजावके उत्तर-पश्चिम भार्जुनायनोंका वासुदेवको मुद्राको तरह कुछ मुद्राओंमें 'शाहितिगिन' | प्रभाव फैला हुआ था । समुद्रगुप्तकी शिलालिपिमें नाम अङ्कित है। इसके पश्चाद्मागमें मूलतानके प्रसिद्ध ' इस आर्जुनायनवंशका प्रसङ्ग देखने में आता है। ईसा सूर्यदेवको मूर्ति देखी जाती है। फिर किसीमें प्राचीन जन्मसे पहले १ली सदोमें प्रचलित इस वंशकी जो मुद्रा नागर अक्षरमें "हितिवि च ऐरान् च परमेश्वर" अर्थात् । पाई जाती है उनका नाम औदुम्बर है। इस मुद्राके हिन्दुस्थान और इराणके अधीश्वर तथा शासनीय पहवी अनुकरण पर प्रीकराज अपलोदोतसकी मुद्रा बनाई लिपिमें "तकान खोरासन मलका" अर्थात् तक्ष वा राई है। पञ्जाव और खोरासनके अधिपति, ऐसा लिखा है। इस केदार। प्रकार पारसिक राजाओंको और भी कितनी मुद्रा आवि- हिमालय प्रदेशमें केदारभूमि (वर्तमान अलमोरा ) कृत हुई हैं। किन्तु वे सव मुद्रा किस स्थानकी वा किसी के निकट ब्राह्मी अक्षरमे शिवदत्त, शिवपालित' आदिको समयको है उसका पता आज तक नहीं चला है। । मुद्रा पाई गई है। इनके एक भागमें चैत्य-रेलि और दूसरे देशीय राजाओंकी प्राचीन मुद्रा। भागमें मृगचिह्न अङ्कित है। ई०सन्से पहले, शरीसे शुङ्गमित्र। १ली सदीके मध्य इन सव मुद्राओंका प्रचार था। पुराणमें शुङ्गमित्र राजाओं के नाम पाये जाते हैं।। यौधेय । अयोध्या और पञ्चाल (रोहिलखण्ड ) से इस वंशके पञ्जावके वर्तमान भावलपुरके जोहियगण 'यौधेय' राजाओंकी मुद्रा पाई गई है। अयोध्यासे मित्रोंकी प्राचीन नामसे प्रसिद्ध थे। इनकी प्राचीन मुद्राओंको वातें पहले ताम्र मुद्रा मिलनेके कारण ऐसा अनुमान किया जा, हो लिखी जा चुकी हैं। अलावा इसके षडानन कार्ति- सकता है, कि इसी प्रदेशसे मित्रवंशका अभ्युदय हुआ केय मूत्तियुक्त ख० पू० पहली शताब्दीकी मुद्रा भी यहाँ- है। इन लोगोंकी अधिकांश ढलाई मुद्रा ब्राह्मी लिपि- | से पाई गई है। युंक्त है। कहीं कहीं चौकोन मुद्रा भो देखी जाती है।। अपरान्त । ___ भारतके नाना स्थानों में विभिन्न प्रकारका कार्षापण' मथुराके हिन्दू और शासनीय राजाओंकी मुद्राको चा पुराण प्रचलित था, यह पहले ही कहा जा चुका है। , तरह 'महाराजस अपलातस' नामाङ्कित अपरान्तोंको मुद्रा ३री शताब्दीमें भारतमें यवनाधिकार होने पर भी भार पाई गई है। तीय खाधीन राजे बहुत दिनों तक जातीय मुद्रा ही चला आन्ध्र, अन्ध्रभृत्य वा सातवाहन | गये हैं। दुर्भाग्यवशतः यद्यपि वे सब प्राचीन निदर्शन पुराणमें आन्ध्रोको मगधका अधिपति बतलाया है, विलुप्त हो गये हैं, तो भो जो सामान्य निदर्शन मिले है किन्तु समसामयिक लिपिसे मगधशासनका कोई प्रमाण उन्हीं का विवरण नीचे दिया गया है। नहीं मिलता। यहां तक, कि मगधराज्यसे उन लोगोंकी अश्वक। मुद्रा भी नहीं मिलती । दक्षिणपथमें आन्ध्रराजगण तक्षशिला (वर्तमान शाहधेरी)के आस पाससे अनेको शासन करते थे। धान्यकटक (वसमान धरणीकोट 'भश्वक वा अश्मक मुद्रा पाई गई हैं। इन सब मुद्राओं- वा अमरावती ) नामक स्थानमें उनकी राजधानी थी। में प्राचीन ब्राह्मी अक्षरमें 'वरश्वक' नाम अङ्कित है। दक्षिणपथके नाना स्थानोंसे उन लोगोंकी मुद्रा पाई गई मुद्रालिपि देखनेसे मालूम होता है, कि वे सब ई०सन् है। उनमें से अधिकांश मुद्राका प्राप्तिस्थान दक्षिण पूर्व श्री वा ३री सदी पहलेको बनी है। इन्हीं सब मुद्राओं- | भारत है अर्थात् अमरावतीके आसपासका स्थान | पला