पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/५८

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

- मुद्रातत्त्व (भारतीय) केवल भान्ध्रोंके धनु और वाणमुद्राका प्राप्तिस्थान | भी वे शक कुशन मुद्राकी जैसी हैं। इस कारण उन्हें पश्चिम भारत है। कोई कोई कहते हैं, कि धान्यकटक- १ली शताब्दीकी मुद्रा मान सकते हैं। . में ही आन्ध्रसम्राटकी राजधानी थी। किन्तु __आभीर । . . . . . साम्राज्यके उत्तर और पश्चिमांशका शासन करनेके । ___ शकाधिपत्यकालमें कोकण और सह्याद्रि अञ्चलमें लिये औरङ्गाबाद जिलेमें गोदावरी तोरस्थ प्रतिष्ठान वा आभीरवंश राज्य करते थे ! पुराण और नासिकको पैठननगरमें उनके प्रतिनिधि अधिष्ठित थे। इसी कारण शिलालिपिमें उस राजवंशका उल्लेख है। वे अधिक पश्चिम भारतसे जो सव आन्ध्रमुद्राएं आविष्कृत हुई। समय शकाधिपोंके सामन्तरूपमें और कुछ समय हैं उनमें राजप्रतिनिधिका नाम देखा जाता है। जैसे स्वाधीनभावमें राज्य करते थे। वहुतेरे अनुमान करते गौतमीपुत्र और वासिष्ठो पुत्रको मुद्रामें 'विलिवाय- | हैं, कि शकपति महाक्षत्रप विजयसेन ( १७१ ई० ) और कुरस' तथा मादरीपूतकी मुद्रामें 'सेवलकुरस' वा दामजश्री ( १७६ ई०)-के शासनकालमें आभीरोंने 'शिवालकुरस' नाम देखा जाता है। आन्ध्रमुद्राका | अपने अधीश्वरके विरुद्ध हथियार उठाया था। आभीर विशेषत्व चैत्य चिह्न है। उज्जयिनीसे आविष्कृत अधि पति ईश्वरदत्तने महाक्षत्रप राज्यको जीत कर महाक्षत्रप कांश मुद्रामें चैत्यचिह्न रहनेके कारण प्रत्नतत्त्वविदोंने विजयसेन और क्षत्रप वीरदामके अनुकरण पर अपनी • स्थिर किया है, कि शकाधिकारके पहले मालवमें मुद्रा चलाई थी। बहुतोंका विश्वास है, कि इसी आभोर- आन्ध्रोंका अधिकार था तथा शकाधिप चष्टन और उनके राज्यसे बैकुटक वा चेदिसंवत् आरम्भ हुआ है । सभी उत्तराधिकारियोंने आन्ध्रदेशसे ही चैत्यचिह्न ग्रहण | आमीरोंने भी आन्ध्रराजाओंकी तरह मुद्रा पर मात कुल किया है। फिर आन्ध्रोंकी कुछ मुद्राओंके चिह्न पल्लव- पुरोहितका गोत्र ग्रहण किया था। मुद्राके सरीखे हैं। इन सव मुद्राओं में समुद्रयात्री नन्दवंश। जहाजोंका चित्र देखा जाता है। नन्दमुद्राको गठन और अङ्कन बहुत कुछ आन्ध्रों के आन्ध्र मुद्राए सोसे और तांबेके मेलसे वनो है। जैसा है। इसीसे ये नन्दराज-मुद्राएं आन्ध्रोंके समय सी उत्तर भारतीय मुद्राको गढ़नसे इस मुद्राकी गढ़न विल । प्रतीत होती हैं। इन लोगोंको मुद्रा पर बोधिट म, त्रिरत्न कुल जुदा है। सुपारके वौद्धस्तूपसे आन्ध्रोंके कुछ | और स्तूप अङ्कित रहनेसे वहुतेरे इन्हें बौद्ध मानते हैं । रौप्यखण्ड पाये गये हैं। उनकी गढ़न, वर्णविन्यास | इस वंशके मूलमन्द और वदल नन्दकी मुद्रा पाई गई है। और वजन सुराष्ट्र और मालवकी क्षत्रप-मुद्राके समान गुत। है। जिन सय मुद्राओंमें 'रण्णो गोतमीपुतस विलि ___श्रीगुप्त इस वंशके प्रतिष्ठाता होने पर भी उनके पोते वायकुरस' नाम अङ्कित है वे नहपानकं विजेता गोतमी श्म चन्द्रगुप्तसे ही गौरवरवि प्रकाशित हुआ । चन्द्रगुप्तने पुत्र सातकर्णी या यज्ञश्री सातकर्णीकी चलाई हुई हैं, | हो सबसे पहले 'महाराजाधिराज' की उपाधि प्रहण कर उसका आज तक कोई प्रमाण नहीं मिलता। फिर | (३१६ ई०) 'गुप्तसम्बत्' और अपने नामका सिक्का

कुछ "मादरोपुत” और “वासिष्ठोपुत श्री वदसत” नाम चलाया। पाटलिपुत्रमें उनकी राजधानी थी। उनकी

देखा जाता है। ये सब मुद्राएं किस आन्ध्रराजकी हैं, मुद्रामें 'लिच्छवयः' और 'कुमारदेवी' का नाम अङ्कित इसका आज तक निर्णय नहीं हो सका है। प्रत्नतत्त्व रहनेसे बहुतोंको धारणा है, कि कुमारदेवी लिच्छविवंश- विद् भाण्डारकरने 'मादरोपुत' को एक आभोर (अहीर) को थी और लिच्छविसे चन्द्रगुप्तने. पाटलीपुत्र प्रहण बतलाया है। किया था। उनके पुत्र समुद्रगुप्तने अश्वमेधके उपलक्षमें कालिङ्ग। समस्त भारतवर्षको जीता था। अश्वमेध :चिहाडित परो और गञ्जामसे अनेक मुद्राएं आविष्कृत हुई है। उनको मुद्रा भो पाई गई है। वे समस्त उत्तर भारतके इन सब मुद्राओंमें किसी प्रकारको लिपि नहीं रहने पर | एकच्छता सम्राट हुए थे। उनके वंशधर विक्रमादित्य