पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/५८२

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यशोवन्त राव यशोवन्त सिंह अटूट भक्ति थो। अतएव उनके पास काफी रुपये आन। कीर्तन और शास्त्री द्वारा भगवद्गीता पाठ होने लगा। इस प्रकार हरिकथा और विष्णु नाम सुनते सुनते अग- लगे। इस प्रकार एक वर्ष तक चला। दुर्भिक्ष भी शांत | हन महीनेको कृष्ण एकादशीको (१७वौं दिसम्बर १८८७ हुआ। वहांसे यशोवत मानमाड़ नामक स्थानमें आये। ई०में) इन्होंने मानवलीला सम्यरण की। यहांके विट्ठलदेवके मन्दिरके अन्तर्गत एक धर्मशाला थी, यशोवत रावके परलोकगमनका संवाद विजलीकी वहीं वे सपरिवार रहने लगे। इस समय महाराज | तरह तमाम फैल गया। मुण्डके झुण्ड लोग आने होलकरने इन्दोर नगर आनेके लिये इन्हें निमंत्रण किया ।) लगे। बड़ी धूमधामसे इनको अन्त्येष्टिक्रिया सम्पन्न यशोवत रावकी इच्छा थी, कि अपने जीवनका अवशिष्ट | हुई। इसके बाद परलोकगत महात्माका स्मरणचिह काल स्वाधीनभाव, विता। इस कारण महाराजके निमंत्रणका वे पालन न कर सके। किंतु महाराजको इन महापुरुषके जीवनमें बहुत सी घटना घटी हैं। उन्हें अपनी राजधानीमें लानेकी एकान्त इच्छा थी। उनमेंसे दो एकका उल्लेख किया जाता है। एक दिन यशो! १८८१ ई०में महाराज स्वयं आ कर इन्हें ले गये। इंदोरमें | वतराव अपने कार्यालय जा रहे थे। उस समय करीव इनके रहने के लिये एक बढ़िया मकान बनाया गया। तथा ) बारह बज रहा था, सूर्यको किरण बहुत तेज थी। इसी उनके सांसारिक और धर्मकार्यके व्ययके लिये मासिक समय एक फकीरने उनसे कहा, 'महाराज! पैर जल रहे वृत्ति भी स्थिर कर दी गई। महाराज तथा उनके | है।" यह सुन कर राव साहचने अपने पैरसे जूता निकाल आत्मीयवर्ग प्रतिदिन यशोवतके दर्शन कर जाते थे। कर फकीरको दे दिया और आप खाली पैर चलने लगे। इस नगर और अन्यान्य स्थानोंके लोग भी इन्हें देखने आते | प्रकार प्रतिदिन कचहरीसे लौटते समय वे देवालय, मस- थे। प्रणामी में जो कुछ मिलता था उसे वे दीनदुःखियों जिद और धर्मशालाको देखते हुए आते थे, तथा जिसे जो के बोच वांट देते थे। दुर्मिक्षमें इन्हें जो ऋण हो गया | अभाव रहता था उसे पूरा कर देते थे। यहां तक कि था उसे इन्दोरकी राजमाताने चुका दिया। जब कभी किसीको मृत देखते थे, तब उस मृतदेह- इंदोरमें कुछ समय रह कर यशोवंतराव खण्डोया का सत्कार करके ही घर लौटते थे। पशुओंका क्लेश नामक स्थानमें, पीछे वहांसे पूना होते हुए बाम्वक गये। देखनेसे भी वे दुःखित होते थे। एक दिन भ्रमण करते यहां ये एक दिन धुरी तरह घायल हुए। जिस घरमें | करते इन्होंने देखा, कि एक गधा पोड़ासे छटपटा रहा वैठ कर विष्णुनाम जपते थे उस घरकी दीवार हठात् है, यह देख वह स्थिर न रह सके । उसके लिये एक घर गिर पड़ी जिससे उन्हें गहरी चोट लगी। चिकित्सा आदि वनवा दिया और सेवाशुश्रपाको व्यवस्था कर दी। अधिक करनेसे कुछ आरोग्य तो हुए, पर उनका शरीर वेकाम क्या, वर्चमानकालमें ऐसे साधुगृहस्थ बहुत कम देखने में हो गया। अभीसे यह अच्छी तरह पोल भी न सकते ! आते हैं । वे अपने आदर्श चरित्र गुणसे शत्रुमित्र सभीको थे। उनकी स्मरणशक्ति भी जाती रही। अवशिष्ट विमुग्ध कर गये हैं। जीवन इन्होंने नासिकमें विताना चाहा। यहां तीन यशोवन्तसिंह मारवाड़ या जोधपुरके एक विख्यात वर्ण रहने के बाद ये ज्वराक्रांत हुए। धीरे धीरे उनके और पराकान्त राजपूत-राजा । पिता गजसिहके मरने शरीरको अवस्था खराब हो चली। चिकित्साका अच्छा रपये पितृसिंहासन पर बैठे। उस समय शाहजहान् प्रबंध होने पर भी कोई फल नहीं दिखाई दिया। यशो- दिल्लके सम्राट थे । गजसिंह शाहजहानके एक पराक्रान्त तको आसन्नमृत्यु देख कर आत्मीयगण उनके सामने | सेनापति समझ जाते थे। यशोवत जव सिंहासन विष्णुका सहस्रनाम पढ़ने लगे तथा हरिदास द्वारा हरि- पर बैठे, तव शाहजहान्ने राजाको उपाधि दे कर उनका सम्मान किया। कुछ दिन बाद ये सेनाध्यक्षके पद . * दाक्षिणात्यमें कथकको हरिदास कहते हैं। । पर नियुक्त हुए। इस समय औरङ्गजेब वागो हो गया