पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/५८५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

५५२ यशोवमदेव - को परास्त किया तथा पश्चिमघाट पर्वतके पश्चिमस्थ । अच्छा न समझा हो, उस दुर्घटनाकी वात कपि वाक • प्रत्येक देशवासीसे कर वसूल किया था। पतिने प्रकट तो नहीं की, पर काश्मोरके ऐतिहासिक इस प्रकार यशोवर्म धीरे धीरे नाके किनारे उप कवि कहणने अपनी रोजतरङ्गिणो साफ साफ लिखा स्थित हुए। यहां राजा कार्तवीर्याकी पवित्र कीर्ति और नदीमाहात्म्यका स्मरण कर कुछ दिन ठहरे। पीछे रण 'पवनने जहां पर कन्याओंको कुब्ज बना दिया था, क्लेश दूर करनेके लिये वहांसे समुद्रके किनारे घायुसेवन उस गाधिपुर (कान्यकुब्ज) में थोड़े ही समयके मध्य करने चले गये। अनन्तर इन्होंने दलवलके साथ मरुदेश राजा ललितादित्य यशोवर्माकी सेनाको परास्त कर (मारवाड़) और श्रीकण्ठ (थानेश्वर ) की ओर यात्रा आदित्यके समान प्रतापमें उद्दीप्त हो गये थे। इस समय कर दी । जनमेजयके 'सर्पसत्र'की बात याद कर इन्होंने | मतिमान् कान्यकुब्जपतिने जो उद्दीप्त ललितादित्यको उस पवित्र क्षेत्रमें कुछ दिन विताया। इसके बाद कुरु उनकी अघोनता स्वीकार कर प्रसन्न किया था उससे क्षेत्रमें जलक्रीड़ा समाप्त कर भारतीय युद्ध के प्रसिद्ध योद्धा ऐतिहासिकोंने तथा अन्यान्य नीतिज्ञोंने उनकी प्रशंसा कर्णका रणक्षेत्र देखने गये। की है। किंतु राजा यशोवर्माके जो सघ सहायक थे, कुरु-पाण्डवोंके उस लोलाक्षेत्रसे राजा यशोवर्मा। उन्होंने इस कार्य में बड़ा अभिमान दिखलाया था। अमि- धीरे धीरे अयोध्या नगरोमें पहुंचे। यहां पर उन्होंने एक मान दिखलायगे ही क्यों नहों, वसन्तकालको अपेक्षा दिनमें एक सुरप्रासाद (मन्दिर ) वनवाया था। इसके | चन्दनानिलकी ही प्रधानता कुछ अधिक है। यशोवर्मा वाद वे मन्दरपळत-वासियों को परास्त करनेको इच्छासे और ललितादित्य दोनोंके संधिसम्बध जो सब नियम- वहां गये। मन्दरवासीके उनकी अधीनता खोकार कर पनादि हैं, वे यशोवर्माकं सांधिविग्रहिक द्वारा लिखे गये लेने पर ये स्वेच्छाप्रणादित हृदयसे यक्षेश्वरके विलास- हैं । "यशोवर्मा और ललितादित्यके बीच यह सघि हुई" स्थल हिमालयदेशको चल दिये। इस प्रकार राजविजयकी | यह वात संधिपत्र में जो लिखी है उससे ललितादित्यके वासना शेष कर राज्येश्वर यशोवर्मा स्वराज्य लौटे राज सांधिधिग्रहिक मिनशर्माने प्रभुका नाम पहले न देख कर भवन में आनन्द-उत्सव मनाया गया। अधीनस्थ सामन्त प्रभुका अपमान समझा था। उत्कट युद्धविग्रह-विषयों और विजित राजे बड़ी उत्सुकतासे विदा किये | उद्धत सेनापतियों ने इस काममें ईर्षा प्रकट की थी। राजा गये। गौड़विजयके वाद ये जिन रूपमाधुर्यमयी मित्रशर्माके ऐसे,उचित व्यवहार पर बड़े प्रसन्न हुए और मगध-राजकुलललनाओं को बन्दोरूपमें लाये थे, उनका बहुत सम्मान किया। उन्होंने प्रसन्न हो कर उन्होंने कोतदासोकी तरह कनौज राजदरवारमें सबके मित्रशर्माको पहलेसे प्रसिद्ध अठारह कर्मस्थानसे उत्पन्न सामने उनके राजश्रीमण्डित बदन पर चंवर डुलाया था। पाँव प्रधान कर्गस्थानके कत्तृत्वरूप पञ्चमहा शब्द द्वारा कवि वाक्पतिने जैसी उज्ज्वल भाषा और जैसे भूपित किया। उन पांच फर्मस्थानों के नाम पे हैं- उत्साहसे अपना "गोड़वध" महाकाव्य आरम्भ किया है, महाप्रतीहारपीडा, महासन्धिविग्रह, महाश्वशाला, महा- अपने प्रतिपालक यशोवर्माकी विजयकाहिनी जिस भावमें | भाण्डागार और महासाधनभाग। इन सब विषयों में गाई है, आश्चर्यका विषय है, कि वे गौड़वधकाहिनी शाहिमुख्य राजगण ही पहले अध्यक्ष होते थे। राजा लिख कर भी अपने महाकाव्यके नायकका वैसा परिचय यशोवर्मा हतसर्वस्व हो सपरिवार वाक्पतिराज भव- न दे सके। अधिक सम्भव है, कि कनौजपति पर कोई भूति आदि पण्डितोंके साथ ललितादित्यके गुणस्तुति- ऐसो दुर्घटना घटी थी, जिसका वर्णन करना कविने वादक थे अर्थात् उन्होंने ललितादित्यको अधीनता स्वीकार कर ली थी। (राजतर० ४१३३-१४) . गोड़राज्यको जीत कर आते समय राजा यशोवर्माने काशीराधिप ललितादित्य द्वारा यशोवर्माकी परा. मगधदेश जीता था। 1 जय तथा कनौजसमाका.परित्याग कर काश्मीर-राज-