पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/५८६

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यशोवर्मदेव सभामें महाकवि भवभूति और राजकवि वाक्पतिका | उसके प्रभावसे वे सभीको परास्त किया करते थे। उनका जाना इन दो कारणोंसे गौड़वधकाव्य एक तरहसे यह कौशल वाक्पतिके सिवा और किसीको न मालूम सम्पूर्ण न हो सका, यह दुर्घटना प्रकाश करना कवि! था । शूरपालने वाक्पतिकी शरण ली और पूर्व सौहाई- वाकपतिने अच्छा न समझा। ! की याद दिलाते हुए उन्हें सहायता करने कहा। वाक्- . राजवरङ्गिणीसे मालूम होता है, कि कनौजाधिप पतिने अपने मित्रको वर्द्धनकुअरका रहस्य चुपके कह यशोवर्माकी सभामै केवल वाक्पति ही नहीं, महाकवि | दिया । तदनुसार तर्वा आरम्भ होनेके समय पद्धनकुञ्जर- भवभूति भी रहते थे। गौड़वधकाव्यसे यह भी जाना के मुखमें गुटिका देने के पहले ही वप्पभट्टिने वड़े कौशल- जाता है, कवि वाक्पतिके प्रतिपालक महाराज यशोवर्मा से उसे चुरा लिया। गुटिकाके नहीं रहनेसे बद्ध नकुञ्जर- का दूसरा नाम कमलायुध भी था। वप्पष्टि-सरि- को हार हुई। पूर्व प्रतिज्ञानुसार धर्म अपना समूचा राज्य चरित, प्रबंधकोष, प्रभावकचरित, पट्टावली, तीर्थकल्प कनौजाधिपके हाथ सौंप देनेको वाध्य हुए। किंतु आदि जैनथ पढ़नेले मालूम होता है, कि कनौजाधिप | आमराजने वप्पभट्टिके आदेशसे धर्मराजको गौड़राज्य यशोवर्माके पुत्रका नाम आमराज था। इनके साथ ! समर्पण किया तथा दोनों मिलतापाशमें आवद्ध हुए। गौड़ाधिप धर्म ( धर्मपाल ) का तर्कयुद्ध चलता ८६० विक्रम सम्बत् ( ८३४ ई०)को मगधतीर्थमें आम. था। उसका विवरण प्रभावकचरितमें इस प्रकार लिखा! राजको मृत्यु हुई।" तालिमपुरसे आविष्कृत गौडाधिप धर्मपालके तान- "पाटलीपुत्र में शूरपाल ( वप्पट्टि ) का जन्म हुआ। शासनके २७वें श्लोकमें लिखा है, 'भोजमत्स्यादि ८०७ सम्वत् (७५१ ई०) में उनकी दीक्षा हुई। इस समय ' राजाओंके आग्रह तथा पञ्चालवासियोंके हसे कान्यकुब्जमें यशोवर्मा राज्य करते थे। उनकी मृत्युके' उन्होंने कानाकुजपतिको स्वराज्यमें अभिषिक्त किया बाद उनके लड़के आमराज कानाकुजके सिंहासन पर था।'* वैठे। उनके साथ गौड़ाधिप धर्मको घोर शत्रता थी। यह कान (कुब्जपति कौन थे ? धर्मपाल भ्रातृप्रपौत्र शूरपाल पहले मामराजके सभामें रहते थे, किंतु किसो नारायणपाल (भागलपुरसे प्राप्त) के ताम्रशासनमें ऐसा कारणसे विरक्त हो वे लक्ष्मणावती नगर चले आये। इस! लिखा है,- समय कवि वाक्पति धर्मके प्रधान सभापण्डित समझे जिन्होंने (धर्मपाल) इंद्रराज आदि शत्रुओंको जीत जाते थे। वाक्पतिकी सहायतासे शूरपाल गौड़राज- | कानाकुन्जकी राजश्री उपार्जन की थी और फिर जिन्हों- सभामें बड़े सम्मानके साथ राजगुरुके समीप रहते थे। ने इंद्रराजके पिता चक्रायुधको वह ( राजलक्ष्मी ) लौटा कुछ दिन बाद आमराजने बड़े कौशलसे व पट्टि शूर-। दो, वही कानाकुन्जपति हैं। पालको अपनी सभामें बुलाया। गौड़राज धर्म इस पर उक्त ताम्रशासनसे मालूम होता है, कि इंद्रराज बड़े दुःखित हुए। अनन्तर उन्होंने आमराजको कहला अपने पिता चक्रायुधको पदच्युत करके कनौजके सिंहासन भेजा, "हम दोनों में बहुत दिनोंसे शत्रुता चली आती है। पर बैठे। फिर धर्मपालने इंद्रराजको परास्त कर चक्रा- अव वृथा शस्त्रयुद्ध न करके, आइये, हमलोग शास्त्रयुद्ध में । युधको उनका नयाय अधिकार प्रदान किया था। इस प्रवृत्त होवें। मेरे राज्य में वर्द्धनकुञ्जर नोमक एक वौद्ध- पण्डित आये हुए हैं। आपके कोई भी सभा पण्डित * "दृश्यत्पश्चालवृद्धोद्धृतकनकमयस्वाभिपेकोदकुम्भौ । शास्त्र-संग्राममें प्रवृत्त हो सकते हैं । इस संग्राममें जिनकी दत्तः श्रीकान्यकुब्जः सललितचलितभ्र लता लक्ष्म येन ॥" हार होगी, वह विना आपत्तिके अपना राज्य छोड़ देंगे। (धर्मपालका ताम्रशासन) धर्मके आह्वान पर आमराजको ओरसे शूरपाल आये और . "नित्वेन्द्रराजप्रभृतीनरातीनुपार्जिता येन महोदयश्रीः । विचार-संग्राममें प्रवृत्त हुए । वनकुञ्जर गुटिकासिद्ध थे। दत्त्वा पुनः सा बलिनाथ पिने चक्रायुधायानतिवामनाय ॥"