पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/५८७

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यशोवमदेव पर पश्चालके वृद्ध मनुष्य बड़े संतुष्ट हुए थे। इससे ज्ञात, . महाकवि भवभूति राजा यशोवर्माको सभामैं रहते होता है, कि पञ्चाल तक चक्रायुधका अधिकार फैलो थे। उनके मालतीमाधव, वीरचरित और उत्तरचरित हुआ था । पीछे उनके दुर्वृत्त पुत्र इन्द्रराजने | इन तीन काव्योंको आलोचना करनेसे उस समयका पितृअधिकारको छीन कर उत्तरापथवासी अपने पिताको | समाजचित्र अच्छी तरह मालूम होता है । कुमारिल और अनुरक्त प्रज्ञाओं पर भी अत्याचार किया था। शङ्कराचार्या बौद्धमतप्लावित भारतभूमिमें ब्रह्मण्यधर्म और जिनसेन विरचित अरिष्टनेमि पुराणान्तर्गत जैन हरि- वैदिक क्रियाकलापादि स्थापन करनेमें जैसे बद्धपरिकर वंश (६६वें सर्ग) में लिखा है,- हुए थे, कवि भवभूति अपने दृश्यकाव्यमें मानों उसी मत- ७०५ शक (७४३ ई०) में (विन्ध्याद्रिके) उत्तरदेशमें को पोषकता कर गये हैं। इन्द्रायुध और दक्षिणदेश ( राष्ट्रकूटराज ) में कृष्णपुत्र श्रीवल्लभ राज्य करते थे। भवभूतिके वीरचरित और उत्तरचरितमें वैदिकमार्ग उत्तरदेशाधिपति इंद्रायुध हो चक्रायुधके पुत्र तथा प्रवर्तनका यन स्पष्ट दिखाई देता है। बौद्ध और तान्त्रिक धर्मसे प्रतिनिवृत्त हो कर जनसाधारण जिससे चैदिक नारायणपालके ताम्रशासनमें "इद्रराज" नामसे वर्णित हुए हैं। प्रभावकचरित, प्रबंधकोष आदि जैनग्रन्थोंसे आचार व्यवहारका अनुसरण कर सके, भवभूतिके तीनों यह भी मालूम होता है, कि आमराजके पुन इन्दुक (वा ग्रन्थों में वही गूढ़ उद्देश्व देखनेमें आता है। सच पूछिये, तो कनौज राजसभासे ही उत्तर भारतमें वेदमार्गप्रवर्तन- दन्दुक )-ने पाटलीपुतनगरमें विवाह किया। वे पितृ- की चेष्टा होती थी। महाराज यशोवर्मा दुष्टोंका दमन करने द्वेपो और बड़े अधार्मिक थे। यहां तक कि उनका और फिरसे वैदिकधर्मसंस्थापनमें विशेष यत्नवान थे। छोटा लड़का भोज पिताके हाथसे रक्षा पानेके लिये इसी कारण उन्हें गौड़वधकाव्यमें हरिका दूसरा अवतार ननिहाल भाग आया था। आखिर भोजने ही दन्दूकको कहा है। यथार्थमें वे हिन्दूसमाजके मध्य नया भाव यमपुरका मेहमान बनाया। जगा देते थे और कानाकुन्जवासी सनातन वैदिक- उक्त पितृद्वेपी इन्दुक ही जहां तहां इंद्रायुध वा इद्र. मार्गका अनुवर्तन करने अग्रसर हुए थे। महाराज राज नामसे परिचित है। पहले कह आये हैं, कि अनेक | आदिशूरने भी वैदिक क्रियाकलापकी प्रतिष्ठाके जैनथोंके मतसे ही आमराज कानाकुन्जके अधिपति लिये कनौज-राजसभासे साग्निक ब्राह्मण बुलाये थे। तथा धर्मके समसामयिक गौर अतमें मित्र थे। उनके अवाध्यपुत्र इद्र वा इन्दुकने उन्हें गद्दीसे उतार कुछ दिन यशोवर्मा जब तक कानाकुन्जमें अधिष्ठित रहे, तव राज्य किया। पोछे धर्मपालके यत्नसे चक्रायुध पुनः तक वैदिकधर्मप्रचार में लोगोंका आग्रह और उत्साह देखा राजसिंहासन पर बैठे। पहले कहा जा चुका है, गया था। इसी प्रकार आदिशूरके समयमें भी वैदिक- कि आमराजके पिता यशोवर्माका एक नाम कमलायुध धर्मप्रचारमें प्रकृत उद्यम और प्रकृत कार्यका अभाव न भी था। ताम्रशासन और जैनपुराणको सहायतासे था। जिस प्रकार यशोवर्माके स्वर्गवास होनेके बाद यह भी जाना जाता है, कि यशोवर्माके कमलायुध नाम- उनके लड़के भामराजने वेदविरोधी जैनधर्मको अपनाया की.तरह मामराजका भी दूसरा नाम चक्रायुध तथा उनके | था, उसी प्रकार आदिशूरके वाद भी उनके वंशधरोंके था, उसा राज्यशासनमें अक्षमताप्रयुक्त पाल-राज्यविस्तारके साथ लड़के इन्दुक वा बन्दुकका दूसरा नाम इंद्रायुध था । अर्थात् साथ गौड़में तान्त्रिक बौद्धमार्ग प्रवर्तित हुआ था। पुत्र, पिता और पितानह ये तीनों ही 'आयुध' संयुक्त नाम | डा० भाण्डारकरके मतसे (वैदिकमार्ग-प्रवर्तक) राजा व्यवहृत करते थे। यशोवर्माका ७५३ ई०में स्वर्गवास हुआ। ना "शाकेष्वन्दशतेषु सससु दिशं पञ्चोत्तरेत्तरान् । ' | यशोवर्मदेव--एक कवि । क्षेमेन्द्रको औचित्यविचारचर्चा- पातीन्द्रायुधनाम्नि कृष्णनृपजे श्रीवल्लभे दक्षिणां ॥" में इनका उल्लेख देखा जाता। . . .