पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/५९५

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यश्वन्त-यष्टिमधु उ० तथा देशा० ८६ १३ पू०के मध्य भैरवनदीके , अतिमदुरम, बेलमी, फारसमें विधेमहक और ब्रह्ममें किनारे अवस्थित है। जनसंख्या ८ हजारसे ऊपर होगी। नोलथियु कहते हैं। यहाँ बेङ्गाल सेण्ट्रल रेल कम्पनीका एक स्टेशन है।। ___ यह वर्षजोवी क्षप है। पारस्य, अफगानिस्तान, तुर्की- पुराण, गवर, शङ्करपुर और चांचड़ा माम म्युनिस्- स्थान, साइवेरिया, अर्मेनिया, एशिया-माइनर और पलिटोको अधीन है। चांचड़ा-राजभवनके गढ़का निद- दक्षिण यूरोपमे यह स्वभावतः उत्पन्न होता है। इटली, 'र्शन आज भी देखने में आता है। प्रासादके समाप चोर फ्रान्स, रुषिया, जर्मनी, स्पेन, इङ्गलैण्ड और चीनदेशमें मारा नाम की एक दिग्गी है। शहर में डिण्द्रिकृजेल, गिरजा इसकी खेती होती है। इसका मूल दो काममें आता है। अस्पताल, लाइब्रेरी और एक हाई स्कूल है। । मूलवहुशाखायुक्त, सुदोध, कठिन फिर भी लचीला और यवन्त-वृत्तद्य मणिके प्रणेता। १ इञ्च मोटा होता है। यष्टव्य (सं० लि. ) यज -तव्य । यजनोय, यज्ञके योग्य। | इस यष्टिमधुके भी कितने भेद हैं जिनमें चरकोक्त यष्टि (सं० पु०) इज्यते इति यज वाहुलकात् ( वसेस्ति । स्थलज और जलज हैं। यष्टिमधुका मूल ही औषधमे उण ४१११७६) इति सूत्रस्य वृत्तौ ति । १ ध्वजदण्ड, व्यवहृत होता है। भारतवर्ष में यष्टिमधु उत्पन्न नहीं होने पताकाका डंडा । २ भुजदण्ड, लाठी, छड़ी। (स्त्री०) पर भी भारतीय चिकित्सक बहुत पहले हीसे इसका ३ तन्तु, लांत। ४ भागों, भारंगी। ५ मधुका लता।६ ! गुणागुण जानते थे । चरक और सुश्रुतमें भी यटिमधुका शाखा, टहनी । ७ गले में पहननेका एक प्रकारका मोतियों गुण वर्णित है । थेवफष्टस, दियोस्कोरिदेश आदि का हार । ८ यष्टिमधु, मुलेठी। वाहु, वाह । । चिकित्सकों तथा सिरम, कियोनियम आदि रोमकान्थ- यष्टिक (सं० पु० ) यटिरिव कन् । १ जलकुक्कुट, तीतर | कारोंने भी इस मधुके मूलका उल्लेख किया है। 'मख- पक्षी । २ दण्ड, डंडा। ३ भागी, भारंगी। ४ मञ्जिष्ठा, । जन-पल आद-किया नामक आरव्य चिकित्साग्रन्थ-प्रणेता. मजीठ । ५ यष्टि देखो। ने इस मूलका विस्तृत विवरण लिखा है। उनके मतसे यष्टिका (सं० स्त्री० ) यष्टि-स्वार्थे कन्-टाप् । १ यष्टि, गले मिस्रका यष्टिमधु ही सर्वश्रेष्ठ है, उसके बाद इराक और में पहनने का हार। २ वापी, वावलो। ३ यटिमधु./ तव सिरीय देश जाते हैं। छालको अलग कर मूल काममें मुलेठी। ४ लगुड़, हाथमे रखनेकी छड़ी या लाठी। लाया जाता है। उनके मतसे इसका गुण-उष्ण, शुष्क, पर्याय--शक्ति, शक्ती, यष्टि, यष्ठो, यष्टिका, दण्ड, काण्ड, पूयज, स्निग्धकारक, वेदना, तृष्णा और फफहर, मूत्र- पशुधन, दण्डक । कारक, रजोनिःसारक और श्वासकास तथा कण्ठनलीगत यष्टिकाभ्रमण (सं० क्लो० ) सुश्रुतके अनुसार जलको ठंढा | उपद्रवमें यह बहुत उपकारक है। किसी किसी हकोमके 'करनेका उपाय। मतसे मूलनिर्यास थोड़ी मात्रामें नेत्रमें प्रयोग करनेसे यष्टिग्रह (सं० पु०) यष्टि गृहातीति यटिग्रह (शक्तिलागला-1 दृष्टिशक्ति बढती है। वर्तमान विलायतके भैषज्यसंग्रहमें . शयष्टितोमरेति । पा ३।२।६) इत्यस्य वार्तिकोक्त्या अच ।। यह खांसी, फेफड़े की श्लैष्मिक झिल्लीके प्रतिश्याय और यष्टिधारक, लाठी रखनेवाला। मूत्रकृच्छ रोगके औषधरूपमें लिया गया है। यष्टिमत् (सं०नि० ) यष्टिविशिष्ट, लाठी रखनेवाला। ____अफगानिस्तानसे पञ्जावमें इस मधुककाष्ठको यथेष्ट यष्टिमधु (सं० क्ली० ) यष्टयां मधुमाधुर्यमस्य । खनाम- आमदनी होती है। छींट कपडे को सुगन्धित और मज ख्यात मधुरमूलकण्ठ, मुलेठी। पर्याय-यष्टिमधुका, | व्रत करनेके लिये यह काठ काम आती है। यर याह, मधुक, यष्टि, क्लीतक। वरकके मतसे यष्टिमधु जलज और स्थलजके भेदसे इसे दाक्षिणात्यमें मीठी लकड़ी, गुजरातमें जेठी मध, दो प्रकारका है, यह पहले ही लिख आये हैं। महाराष्ट्रमें जेष्ठा मधु, तेलगुमें यष्टिमधुरम् , तामिलमें राजनिघण्टके मतसे स्थलजको यष्टिमधु और जल- अतिमदुरम, कनाड़ी यष्टिमधुका, अतिमधुरा, सिहलमें | जातको अतिरसा कहते हैं । गुण-मधुर, कुछ तिक्त,