पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/६१८

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. यांजेपुर २०५१ ३० तथा देशा० ८६२० पू०के मध्य वैतरणीके । विरजादेवो विद्यमान हैं, उसके समीप गयासुरका दाहिने किनारे अवस्थित है। जनसंख्या १२ हजारसे नाभिकुण्ड तथा कुछ उत्तर ब्रह्माका शुभस्तम्भ है । ऊपर है। हिन्दूका पवित्र तीर्थ कह कर यह बहुत दिनोंसे । देवो और देवस्थानके मध्य हसरेखा, पद्मरेखा और पवित्र है। आज भी यहां महकूमेका विचार सदर चित्ररेखा नामक तीन स्रोत तथा गुप्तगङ्गा, मन्दाकिनी रहनेके कारण पूर्वप्रसिद्धि विलुप्त नहीं हुई। चैतरणी और वैतरणी नामक तीन तीर्थ विराजमान हैं। चैतरणी नदीके दाहिने किनारे अवस्थित रहनेसे नगरका सौन्दर्य | तट पर अष्टमातृकादेवी हैं, जहां मुक्तीश्वर महाशम्भु भो दूना बढ़ गया है। विराजित हैं, उनके पश्चिमभागमें अन्तर्वेदी है। इस ___उड़ीसाके सोमवंशीय राजा महाशिवगुप्त ययातिने | अंतर्वेदीमें ब्रह्माके यज्ञके समय देवताओंकी सभा बैठी इस नगरमें उड़ीसाकी राजधानो वसाई थी। इस कारण | | थी। वहांसे एक कोस पूरव उत्तरवाहिनी तीर्थमें सिद्ध. 'वयातिनगर' नामसे भी प्राचीन शिलालिपि और ताम्र- लिङ्ग अवस्थित हैं। अशोकाष्टमीमें यहाँ कुछ दिन तक शासनमें इसका उल्लेख देखा जाता है। यात्रा होती है। यह सिद्धलिङ्गः हरिहरमूर्ति है। कुरु- __बहुतोका अनुमान है, कि राजा ययाति जव हिन्दू- वंशीय प्रद्युम्नने इस तोर्शमें तपस्या की थी। विरजाके धर्म स्थापन करनेके लिये विहारसे दक्षिण आये तव | दक्षिण सोमतीर्थ है। यहां सोमेश्वर नामक प्रसिद्ध लिङ्ग उन्होंने यहां ययातिपुर नगर वसाया था, पीछे उसीके | विराजित है। उसके पूर्णभागमें त्रिकोण नामक प्रसिद्ध अपभ्रंशसे याजपुर हुआ होगा। किन्तु याग वा यज्ञसे | लिङ्ग तथा उससे और भी कुछ पूरवमें गोकर्णतीर्थ है। यांजपुर नामका होना बहुत कुछ संभव है। किंवदन्ती | वराह और विरजाके मध्यभागमें अखण्डेश्वर अवस्थित है, कि वैतरणोके वाएं किनारे ब्रह्माने अश्वमेध यज्ञ किया है। वराहके पूर्वभागमें गुप्तगङ्गातीर्णमें गश्वर है, उसी था। तभीसे यह स्थान यज्ञपुर कहलाने लगा है, इसी | गङ्गेश्वरके समीप पातालगङ्गा और उसके उत्तर वारुणो कारण वाराणसीधामको तरह दशाश्वमेधघाटकी भी तीर्था है । विरजाके चारों ओर अष्टश भु, द्वादशभैरव और अवतारणा हुई है। यज्ञकालमें होमाग्निसे दुर्गा विरजा द्वादश माधवमूर्ति स्थापित हैं। विरजाक्षेत्रका आयतन मूर्तिमें आविर्भूत हुई थों, इससे यह स्थान विरजाक्षेत्र दो योजन विस्तृत और शकटको आकृतिका है। उसके कह कर प्रसिद्ध हुआ ! भगवान् विष्णुने यहां अपनी | तीन कोनेमें विल्वेश्वर, खिलाटेश्वर और वटेश्वरशंभु है। गदा रखी थो, इस कारण वैष्णव समाजमें यह स्थान | इस क्षेत्रके दूसरे स्थानमें अनन्तकोरिलिङ्ग विद्यमान है। एक पुण्य तीर्थ और गदाक्षेत्र कह कर परिचित जिसे अभो हरमुकुन्दपुर कहते हैं, वहां ब्रह्माका यशस्थल है। दूसरे पुराणमें लिखा है, कि गयासुरने जव विष्णुके .था। इस तीर्थमें प्रायः १० हजार वेदपारग षट्कर्मनिरत चरणतलमें अपना शरीर फैलाया था, उस समय उसका विप्र वास करते हैं। मस्तक गयाक्षेत्रमें, नाभि याजपुरमें और दोनों पैर । विरजातांपनीमें याजपुरको शकटको आकृतिका वत- गोदावरीके अन्तर्गत पीउपुरमें चले गये थे । तभोसे | लाया है। तीन कोने में जो तोन शिवमन्दिर हैं, वही एक यह स्थान नाभिगया और पोठपुर पादगया कहलाता | तरह मानो सीमावन्दी कर रहे हैं। जैसे, मंगुलीमें है। अभी जिस प्रस्रवणके किनारे तीर्थयात्रिगण स्थानेश्वर, उत्तरवाहिनी तट पर सिद्धेश्वर और विरजा- श्राद्धका पिण्डदान करते हैं, वही गयासुरकी नाभि कह | देवीके मन्दिरके समीप अग्नीश्वर ! मधुशुक्लाष्टमीमें सिद्ध कर प्रसिद्ध है। विरजातापनीमें इस प्रकार लिखा है,- श्वरका मेला लगता है। नगरके भीतर आखण्डलेश्वरका ब्रह्माके यज्ञकुण्डसे यज्ञवराह और विरजादेवी उत्पन्न मन्दिर है। कहते हैं, कि इन्द्र वहां तपस्या करके गौतम- हुई थी। वैतरणीके किनारे वराहदेव अवस्थित हैं, | शापजनित सहस्रयोनित्वसे मुक्त हुए थे। एक दूसरे किन्तु विरजा वहांसे करीव कोस भर दूर है। उनके | मन्दिरमें हाटकेश्वर नामक प्रसिद्ध लिङ्ग विराजमान है। सामने सौ धेनुके फासले पर स्वर्गद्वार है। जहां विरजादेवीके मन्दिरसे आध मीलकी दूरी पर