पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/६२१

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याजपुर ये गङ्गवशीय राजे धीरे धीरे वैष्णवधर्मका ही प्रचार, मातृका-मन्दिरको पश्चाद्भागमें जगन्नाथदेवका मन्दिर है। करनेमें वद्धपरिकर हुए । गङ्गवंश देखो। मन्दिरका प्राङ्गण २५० फुट लंबा और १५० फुट चौडा सूर्यावशीय विख्यात राजा प्रतापरुद्रदेवके शासन- होगा। प्राङ्गणके चारों ओर पत्थरको दीवार खड़ी है। कालमें श्रोचैतन्य महाप्रभुने याजपुर पदार्पण किया। वराह और जगन्नाथदेवके मध्यवत्तीं शुष्क वैतरणीगर्भ में श्रीचैतन्यके आगमनसे यहां वैष्णवधर्मप्रचारकी जड़ और शतभिषानक्षत्रयुक्त चैत्र कृष्णत्रयोदशोमें वारुणोयोग भी मजबूत हो गई। प्रतापरुद्रने श्रीचैतन्यदेवका | लगता है, उस उपलक्षमें यात्रा प्रारम्भ होती है। वह शिष्यत्व खोकार किया था। ये ही याजपुरका विख्यात यात्रा अमावस्या तक रहती है। उस समय १०१२ वराहमन्दिर स्थापन कर गये हैं। हजार यात्री इकट्ठे होते हैं। वैतरणी-स्नान तथा वराह- प्रतापरुद्र और चैतन्य देखो। | अष्टमातृका और जगन्नाथदेवके दर्शन तथा पूजा वराहमन्दिर प्रतापरुद्रदेव द्वारा (१५०४-१५३२ ई०में) | होती है। शनिवारको वारुणी होनेसे 'महावरुणी' योग ..बनाया गया। मन्दिरको गठन उड़ीसा प्रदेशकी अन्यान्य | होता है। मन्दिर-सी है। गर्भगृहमें वराहदवको मूर्ति प्रतिष्ठित . १६वीं सदी में यहां हिन्दू-मुसलमानोंके बीच विवाद है। उसके सामने जगन्मोहन मण्डप तथा उसके हो गया था। उस विवादके फलसे यहांकी प्राचीन सम्मुख . पत्थरका बना चबूतरा है। प्रवाद है, कि कोर्तियां तहस नहस हो गई। मुसलमानों के अत्या. जो इस चबूतरे पर बैठ कर बराहदेवके सामने गो- चार और युद्धविग्रहसे उत्साहितप्राय होने पर भी यहां के दान करता, वह गोपुच्छ पकड़ कर यमद्वारस्थ ७ प्राचीन ब्राह्मणवंशके कुलप्रन्थसे मालूम होता है, कि तप्ता वैतरणी आसानीसे पार कर जाता है। उनके पूर्वपुरुषगण छठी सदीमें यहां आ कर वस गये। इस काममें गोके मूल्यस्वरूप कमसे कम पांच रुपये भी देने उस पुरोहितवंशने चन्द्रवंशीय प्रथमराज़से बहुत ब्रह्मो- पड़ते हैं। ब्राह्मणवरणके वस्त्र के लिये ।) आना, गो-पूजाके तर पाया था। उस सम्पत्तिका आज भी उनके वंशघर- वस्त्र और नैवेधके लिये १) रु०, गोदानकी दक्षिणाके लिये | गण भोग करते हैं। १) रु० और गोदानकी साक्षीकी दक्षिणाके लिये ।। आना| वारुणी-स्नानके उपलक्षमें यहाँ जो मेला लगता है देना आवश्यक है। वहांके पण्डा लोग ही ब्राह्मणत्वमें | उसमें हजारों यात्री समागम होते हैं। वैतरणो-स्नानके वरण होते. हैं। पण्डाका काम है, वैतरणीकृत्य गोदान वाद यहां श्राद्ध करनेको विधि है । श्राद्ध करनेवाले ,जिस- मूल्यादि लेना, दशाश्वमेधघाट पर स्नानदक्षिणा लेना से उनके पितृपुरुषगण वैतरणी पार कर स्वर्ग जाये उसी और नाभिगयामें पिण्डदानकी दक्षिणी लेना । इस कामनासे गोदान करते हैं। . . मन्दिरके प्राङ्गणमें जो छोटे छोटे मन्दिर हैं उनमें क्रान्ति . : पूर्वोक्त प्रसङ्गानुसार वोधगयासे याजपुर तक गया- देवी, काशीविश्वनाथ, वैकुण्ठ आदि अनेक प्रकारकी देव सुरका शरीर फैला था, अतः बौद्धधर्मकी यदि वहां तक मूर्ति प्रतिष्ठित हैं। प्राङ्गणके एक किनारे एक वटवृक्ष | विस्तार माना जाय, तो कोई अत्युक्ति न होगा। क्योंकि है जो धर्मवट कहलाता है। उक्त मन्दिरसे वैतरणीमें | जब याजपुरके अति निकटवत्तीं दन्तपुरमें बौद्धधर्मको आनेके लिये पत्थरकी सोढ़ी बनी है। वहां नवग्रहमूर्ति | प्रधानता प्रतिष्ठित हुई. थो, तव याजपुर तक उसको भी अङ्कित देखो.जाती है। इस घाटके सामने वैतरणी विस्तृति न हुई होगी, यह कहां तक सम्भव है । बुद्ध के में चर पड़ गया है .. वर्षाऋतु.छोड़ कर और कभी भी प्रधान भक्त वपुषभल्लिक उत्कलवासी थे । आज भी उसमें जल नहीं रहता। वैतरणीमें बहुत दूर जा कर | : बौद्ध कीर्शिके कितने निदर्शन. याजपुरमें विद्यमान है । स्नान करना पड़ता है। वोधगयासे ले.कर याजपुर तक बौद्धप्रभावका हास हो वराहदेवके सामने वैतरणीके दूसरे किनारे एक | कर जव धीरे धीरे हिन्दूधर्मको प्रधानता स्थापित हुई। प्रशस्त घरमें अष्टमातृकाको मूर्ति : विराजित है । अष्ट- | तब याजपुर भी हिन्दूकी निगाह पर बोधगयाको तय .