पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/६२८

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याजपुर ३य भानुदेवके प्रियपुन ४थ नरसिंहदेव सिंहासन पर। और कोण्डपल्लीका दक्षिणांश वाहनीराजको दे दिया। बैठे। इनका राज्यकाल १३००-१ से १३४६ शक माना| उनका राज्यकाल १४६९-७०से १४६६-६७ ई० है। जग. जाता है। ताम्रशासन और शिलालिपिक अनसार ये हो नाथ-मन्दिरके ऊपर जो चक्र है उसमें इन्हीं पुरुषोत्तम गङ्गवंशीय अन्तिम राजा हैं। इन्होंके समय जौनपुराधिप देवका नाम उत्कीर्ण है। वे जगन्नाथ और श्रीकूम में शकीवंशीय ख्वाजा-इ-जहान्ने लक्ष्मणावती और जाज- वहुत-सी कीर्तियां छोड़ गये हैं। चैतन्यचरितामृतमें नगरको कर देना कबूल किया था। आईन इ अकवरीमें | लिखा है, कि पुरुषोत्तमदेव विद्यानगरको जीत कर वहां- लिखा है, कि मालवाधिप हुसन उद्दीन होसङ्ग (४२५/ के रत्नसिंहासनको उठा लाये और जगन्नाथदेवको उप- हिजरीमें) वणिक्वेशमे जाजनगर आ कर उत्कलपतिको | हार दे दिया। कैद कर ले गया। आखिर गजपतिने बहुतसे हाथो दे। पुरुषोत्तमके बाद उनके लड़के प्रतापरुद्रदेवने १४६६- कर छुटकारा पाया। इन चतुर्थ नरसिंहके बाद १३४६ / १७ले १५३९-४० ई० तक राज्य किया। इनके शासन- से १३५३ शक पयन्त उत्कलराज्य एक तरह अराजक हो । कालमै उत्तरमें गौड़ाधिप होसेनशाहने उत्कल जीतना गया था। इस अराजकके समय नरसिंहक मनोभ्रमर-: चाहा और उधर दक्षिणमें विजयनगराधिप नरसिह और वर कपिलेन्द्रदेव अपना शिर उठा रहा था। उनके भयः गोलकुण्डाके स्थापयिता कुतुबशाहका अभ्युदय हुआ। से बहुसंख्यक लोग उत्कलका परित्याग कर दूसरे देशौ । विजयनगराधिप नरसने गजपतिको कई बार युद्ध में ज़ा कर वस गये। गोपोनाथपुरको शिलालिपिसे मालूम परास्त किया। गौड़के सुलतानका सेनापति इस्मा- होता है, कि उनके दौदण्डप्रतापसे कर्णाट, कुलवरग, । इलगाजी (१५०६ ई०में ) उत्कलराज्यको तहस नहस 'मालव; गौड़ ऐसा कि दिल्लीश्वर पर्यन्त परास्त हुए थे।। कर पुरी तक चढ़ आया और कितने देवमन्दिरोंको नष्ट गोपीनाथपुर देखो। इस प्रकार शत्रका दमन कर कपिलेन्द्र कर डाला । किन्तु आखिर दक्षिणागत प्रतापदके प्रवल वा कपिलेश्वर भ्रमरवरराय १३५६ शक (१४३४ ई० )में , आक्रमणसे मुसलमान-सेनापतिको पीठ दिखानी पड़ी गङ्गसिंहासन पर बैठे । उन्हींसे उत्कल में सूर्यवंशीय | थी। राजा प्रतापरुद्रने गङ्गाके किनारे मुसलमानसेना- .राजाओंकी प्रतिष्ठा हुई। पतिको परास्त किया। मुसलमानसेनापतिने गढ़मंदा. भ्रमरवर फपिलेंद्रदेवने उत्तरमें गङ्गासे ले कर रणमें भाग कर जान बचाई । इस समय प्रतापरुदके एक 'दक्षिणमें कृष्णा पर्यत अपना आधिपत्य फैलाया था। प्रधान कर्मचारो गोविंदविद्याधरने शत्रुका पक्ष लिया, इस उनका अधिकांश समय विजयनगरके हिन्दूराजवंश । कारण गजपति घेरा उठा कर उत्कल लौट जानेको वाध्य वाहनीराजाओं के साथ युद्धमें बोता था। उन्होंने याज- हुए। प्रतापरुद्रके शासनकालमें महाप्रभु चैतन्यदेव पुर, भुवनेश्वर, जगन्नाथ और श्रीकूर्मकी देवसेवाके लिये (१५१० ई०में) उत्कल पधारे। चैतन्यमङ्गालके रचयिता अनेक ग्राम दान कर दिये थे। .१४६६ ई०में कपिलेन्द्रका | जयानन्दने लिखा है, कि याजपुरमें चैतन्यदेवके पूर्वपुरुष देहान्त हुआ। लक्ष्मण महापान और उनके लड़के / रहते थे। राजा भ्रमरके भयसे श्रीहट्टमें वे भाग गये। नारायण तथा गोपीनाथ महापाल कपिलेन्द्र के मंत्री थे। वैतन्यदेव याजपुर में आ कर कमललोचन नामक अपने गोपीनाथपुरके सुप्रसिद्ध गोपीनाथजीका मन्दिर गोपी एक शातिके घर ठहरे थे। उनके अभ्युदयसे उत्कलमें नाथ महापानकी कीर्ति है। अभी उस मंदिरका ध्वंसा कृष्णप्रेमतरङ्ग उमड़ने लगी थी। रथयात्राके समय राजा वशेषमात्र रह गया है। गोपीनाथपुर देखो। प्रतापरुद्रने महाप्रभुके दर्शन किये। तभीसे वे महाभुके ... कपिलेन्द्रदेवकी मृत्युके बाद उनके लड़कोंमें सिहा. अनुरक्त भक्त हो गये। उत्कल-राजके जितने प्रधान सन ले कर विवाद खड़ा हुआ। आखिर पुरुषोत्तमदेवने । कर्मचारी थे, सभी चैतन्यके सक्त हो गये थे। बामनीराज श्य महम्मदशाहकी सहायतासे पितृसिंहा-

सन लाभ किया। इस प्रत्युपकारमें उन्होंने राजमहेंद्री

चैतन्यदेव देखो। प्रतापरुद्रकी शेषावस्थांमें अधिकांश समय उन्हें Vol, XVIII, 157