पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/६३५

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६६२ यावा . वार, तिथि और नक्षत्रयोगमें अमृतयोग हुआ करता । लिये दधिमङ्गलादि मङ्गलद्रव्यका कीर्तन, श्रवण, दर्शन है। रवि और मङ्गलवार में प्रतिपद्, एकादशी और षष्ठी और स्पर्शनसे क्रमशः अधिक फल होता है। अर्थात् तथा खातो, शतभिषा, आर्द्रा, रेवतो, चित्रा, अश्लेषा, कीर्तनसे श्रवणमें अधिक फल, श्रवणसे दर्शन में अधिक मूला और कृत्तिका नक्षल; शुक्र और सोमवारमें, द्वितीया, | और दर्शनसे स्पर्शमे और अधिक फल होगा। 'द्वादशो और सप्तमो तिथि तथा पूर्वफल्गुनी, उत्तर । दधि, घृत, दूर्वा, आतपतण्डुल, पूर्णकुम्भ, सिद्ध फल्गुनो, पूर्णताद्रपद् और उत्तरभाद्रपद् नक्षत्र ; वुधवार अन्न, श्वेतसषेप, चन्दन, दर्पण, शङ्ख मांस, मत्स्य, में त्रयोदशी, अष्टमो और तुनोया तिथि तथा मृगशिरा, | मृत्तिका, गोरोचना, गोमय, गोधूलि, देवमूर्ति, वीणा, श्रवणा, पुष्या, ज्यष्ठा, भरणी, अभिजित् और अश्विनो, फल, भद्रासन, पुष्प, अञ्जन, अलङ्कार, अत्र, ताम्बूल, 'बृहस्पतिवारमें चतुर्थी, नवमी और चतुर्दशी तिथि, | यान, आसन, शराब, ध्वज, छत, ध्यजन, वस्त्र, 'पद्म, • उत्तराषाढा, विशाखा, अनुराधा, मघा, पुनर्गनु और पूर्वा- भृङ्गार, प्रज्वलित अग्नि, हस्ती, छाग, कुशा, चामर, रत्न, 'षाढ़ा ; शनिवार, पञ्चमी, दशमी, अमावस्या और सुवर्ण, रौप्य, ताम्र, रङ्ग, मेष, औषध, मद्य और नूतन • पूर्णिमा तिथि तथा रोहिणो, हस्ता और धनिष्ठा नक्षत्र पल्लब ये सब द्रव्य यात्राकालमें दक्षिणकी ओर देखनेसे 'होनेसे वामृतयोग होता है । इस योगमें यात्रा करनेसे | शुभ होता है। अति शीघ्र अभिलाष पूर्ण होता है। वार, तिथि और यात्राकालमें नृत्यगोत और ध्वनि वहुत शुभ है। 'नक्षत्र इन तीनों के योगमें जो यात्रा को जाती है, वह ! यात्राकाल में यदि कोई व्यक्ति खालो घड़ा ले कर यदि अमृतवत् है। इसीसे इसका नाम वामृतयोग हुआ है। पथिकके साथ जाय और घड़े को भर कर लौटे, ता • एक एक मासको एक एक तिथिविशेष निन्दित है। पथिक भी कृतकार्य हो निर्विघ्न घर लौटता है। उस तिथिमें यात्रा नहीं करनी चाहिये । उन सघ अङ्गार, भस्म, कोष्ठ, रक्त, कदम, कपास, तुप, अस्थि, तिथियोंको मासदग्धा कहते हैं। विष्ठा, मलिन व्यक्ति, लौह, आवर्जनाराशि, कृष्णधान्य, वैशाखमासके शुक्लपक्षकी षष्ठो, आषाढकी शुक्लाष्टमी, प्रस्तर, केश, सर्प, तेल, गुड़, चर्म, वसा, शून्यभाण्ड, भाद्रकी शुक्लादशमी, कार्तिककी शुक्लाद्वादशी, पौषकी लवण, तृण, तक्र, शृङ्खल, वृष्टि और वायु ये सब यात्रा- शुक्लाद्वितीया, फाल्गुनको शुक्ला चतुथों, श्रावणको कृष्णा- कालमें शुभ नहीं हैं। यात्राकालमें ये सब द्रष्य देखनेसे षष्ठो, आश्विनकी कृष्णाष्टमी, अग्रहायणको कृष्णादशमी, अशुभ होता है। यदि यात्रा करके सवारी पर चढ़ते माधको कृष्णाद्वादशो, चैत्रकी कृष्णाद्वितोया, -ज्यैष्ठकी | समय पैर फिसल जाय अथवा घरसे बाहर होते समय कृष्णाचतुथीं, इन सव तिथियों .कदापि यात्रा न करे, दरवाजे पर चोट लगे, तो उसे यात्रामें विघ्न होगा, ऐसा करनेसे इंन्द्र तुल्य व्यक्ति भी मृत्युको प्राप्त होता है। । जानना चाहिये। यात्रामें केवल तिथिका फल इस प्रकार कहा गया है। मार्जारयुद्ध, मार्जारशब्द, कुटुम्बका परस्पर विवाद, कृष्णा प्रतिपदमें यात्रा करनेसे कार्यसिद्धि; शुक्ला प्रति- यह सव यात्राकालमें देखने वा सुननेसे उस यात्रामें पदमें अशुभ, द्वितीयामें यात्रा शुभ, तृतीयामें विजय, मनकष्ट होता है। ऐसी अवस्था में जाना उचित नहीं। चतुर्थी में बध, बन्धन और फ्लेश, पञ्चमीमें अभीष्टलाभ, । यात्राकालमें यदि रोदनका शब्द न सुन कर केवल शव- षष्ठोमें व्याधि, सप्तमोमें अर्थालाभ, अष्टमीमे अस्त्रपीड़ा, की दर्शन हो जाय, तो कार्यको सिद्धि होती है। किन्तु नवमीमें भूमिलाभ, एकादशीमें अरोगिता, द्वादशीमें | गृहप्रवेशकालमें शव दर्शन होनेसे मृत्यु अथवा कठिन अशुभ, त्रयोदशीमे सर्वार्थसिद्धि, चतुर्दशी, अमावस्या रोग होता है। यात्राकालमें कुल्लो करते समय यदि कुछ और पूर्णिमा यात्रा करनेसे अशुभ है। भी जल हठात् गलेमें उतर जाय अर्थात् पेटमें चला जाय, . यमद्वितीया अर्थात् भाईदूजको यात्रा नहीं करनी तो अभीष्टकार्यको सिद्धि होती है। . चाहिये, करनेसे मन्य होतो है । यात्राकालमें शुभ होनेके . .. गमनकालमें यदि सुन्दर, 'शुक्लवस्त्र और शुक्लमाला-