पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/६३७

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यावा. शिवज्ञानके अनुसार यात्रा करनेसे शुभ होता है । यात्रा- यात्रा। ये सव यात्रा करनेसे मुक्तिलाभ होता है। में शिवशान यथा- यात्रा-बहुत प्राचीनकालसे भारतवर्ष के नाना स्थानों में "माहेन्द्रे विजयो नित्य अमृते कार्य शोभनम् । ही प्रकाश्य रङ्गभूमिमें वेषभूषासे भूषित और नाना वक्रे कार्यविलम्बः स्याच छून्ये च मरण ध्रुवम् ॥ साजोंसे सुसजित नरनारियोंके साथ गाजेबाजेसे कृष्ण- 'वैशाखादिश्रावणान्त एकभावेन संवहेत। प्रसङ्ग या रासलीला करनेकी प्रथा चली आती है। अमृतादि दिवारात्रौ चतुर्मास यथा क्रमम् ॥ पुराण आदि धर्मग्रन्थों में वर्णित भगवानके अवतारकी याममान दिवामाने शेयं सर्वत्र मासके। लीला और चरित्रकी व्याख्या करना ही इस अभिनयको तत् प्रमाणेन ज्ञातव्य दण्डमान विचक्षणः। उद्देश्य है। धर्मप्राण हिन्दू उस देवचरित्रकी भलौकिक रात्रिमानप्रमाणेन शेयो दण्डप्रमाणकः ॥ घटनाओंका स्मरण रखनेके लिये एक एक उत्सवका न वारतिथिनक्षत्र' योगकरण तथा। अनुष्ठान किया करते हैं। गीतवाद्यके साथ लीलोत्सव शिवज्ञानं समासाद्य सर्व मुनिर्विचारयेत् ॥" (ज्योतिःसारस०, प्रसङ्गमें जो अभिनय होता है उसे वङ्गालमें यात्रा माहेन्द्र, अमृत, वक्र और शून्य यह चार योग प्रति- कहते हैं। दिन चौबीसों घटे रहते हैं। उनमें से माहेन्द्रयोगमें यात्रा । दश अवतारों में श्रीकृष्णचन्द्रको लीला ही सबकी करनेसे विजय, अमृतयोगमें कार्यसिद्धि, वक्रयोगमे अपेक्षा वहुत आदरकी चीज है । इसी लिये हिन्दूमात्र कार्यानाश और शून्ययोगमे यात्रा करनेसे मृत्यु होती है। ही कृष्णलीलाकी घटनाको हृदयमें धारण करनेके लिये देव-देवीकी यात्रा। लोलामय भगवान्की लीलाके एक अशका प्रदर्शन कर मास मासमें भगवान् विष्णुके उद्देशसे जो उत्सव | एक उत्सव करते आते हैं। सुतरां वङ्गालमें यात्रा कहने. किया जाता है, उसे भी यात्रा कहते हैं। वारह मासमें | से उत्सवकालीन अभिनयका वोध होता है। भगवान विष्णुको वारह प्रकारकी याला कही गई है। श्रीकृष्णके रासचक्रको घटना रास-यात्राके नामसे भो जैसे,—वैशाखमासमें चन्दनीयात्रा, ज्येष्ठमें स्नापनी प्रसिद्ध है। दोलयात्रा, रथयात्रा, गोष्टयाना आदि देव- (स्नानयात्रा), आषाढमें रथयात्रा, श्रावण में शयनी, लोलाकी घटनाओंको स्मरण करनेके लिये कितने ही लोग भाद्र में दक्षिणपाचीया, आश्विनमें वामपाश्षिका, कार्तिक खतःप्रणोदित हो एक जगह एकत्र हो कर साधारणके में उत्थानी, अग्रहायणमें छादनी, पौषमें पुष्याभिषेक, सामने उन घटनाओंको दिखाने के लिये एक धारावाहिक माधमें शाल्योदनी, फाल्गुनमें दोलयात्रा और चैत्रमासमें चरित्र चित्र उपस्थित करते हैं। यह घटना ही उत्सव मदनभञ्जिका याना। विष्णुको प्रीतिकामना करके इन | या यात्राके नामसे पुकारी जाती है। देवचरित्रका जो सब यावाविधिका अनुष्ठान करनेसे मुक्तिलाभ होता है।। अंश अति गभोर पूजा आडम्बर और भक्तिके साथ वामकेश्वरतन्त्रमें देवी भगवतीको प्रसन्न करनेके | आनन्दतरङ्गमें पड़ कर समाजमें प्रकटित होता है, वही लिये बारह महीनेमें सोलह प्रकारको यात्राका विषय | 'यात्रा'-फे नामसे प्रसिद्ध है। लिखा है। जैसे,—वैशाखमासमें मञ्चयात्रा और चन्दना- इस देवचरित्रके व्याख्यान या अभिनयरूपी घट. गुरुयात्रा, ज्येष्ठमासमें महास्नानयात्रा, आषाढ़में दश | | नाओंसे किस तरह सङ्गीताभिनयके आकारको यात्रा दिन तक रथयात्रा, श्रावणमें वस्त्रभूषण और चामरादि | उत्पत्ति हुई थी, उसके ठोक ठीक तस्वकी खोज करना द्वारा जलयात्रा, भाद्र में तीन दिन तक भूलनयात्रा, | बहुत कठिन है। फिर केवल इतना ही कहा जा सकता आश्विनमें महापूजा, कार्तिकमें दोलयात्रा, अग्रहायणमें . है, कि प्राचीन यात्राप्रथाका अनुकरण कर हो वर्तमान नवान्न, पौषमें वस्त्र, अलङ्कार और भूषणादि द्वारा अड़- | कृष्णयात्रा, रासलीला, रामयाला या रामलीला आदि रागयाना, माघमें रटन्ती चतुदशी, फाल्गुनमें दोलकेलि | लीलायें गठित हुई होगी, क्योंकि जगन्नाथदेवकी या पुरी- और चैत्रमें दूतीयात्रा, रासयाता, वासन्ती और नलि. की रथयात्रा और बौद्धोंकी बुद्ध-यात्रा आदि यात्राओंका