पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/६७०

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होगी, पर वहुत्वपर ऐसी व्याख्या करनेसे फिर कोई | युगोंका नाम होता है। जैसे, नारायणयुग, वृहस्पति- विरोध नहीं करता। युग, इन्द्रयुग इत्यादि। अरोगाः सर्वसिद्धार्थाश्चतुर्वर्षशतायुषः। पांच पांच वर्षका एक एक युग होता है, यह पहले कृते त्रेतादिषु ाषामायुर्हसति पादशः ॥" (मनु० १०८३)/ हो लिख आये हैं। इस युगके अन्तर्वती पांच पांच वर्ष- 'शतायु ●पुरुष इत्यादि श्रुतौ तु शतशब्दो बहुत्व की फिर पांच पांच करके संज्ञा है, जैसे-१ संवत्सर, परः कलिपरो वा' (कुल्लूक) २ परिवत्सर ३ इदावत्सर, ४ अनुवत्सर, ५ इद्वत्सर; यह जो आय काल निर्दिष्ट हुआ है, सुकृति वा अधिपति, जैसे-अग्नि, सूर्य, चन्द्र प्रजापति और महा- दुष्कृतिके कारण इसका भी हांस और वृद्धि होती है। देव। पुण्यकर्मसे आयु की वृद्धि और पापकर्मसे आय का ___पहले जिन १२ युगोंकी बात लिखी जा चुकी है, हास होता है। उनमें प्रथम चार युग है, जिनके अधिपति हैं विष्णु, इन्द्र, "वपःपरं कृतयुगे प्रेतायां ज्ञानमुच्यते । प्रजापति और अनल। यही चार युग सवसे द्वापरे यशमेवाहुर्दानमेकं कलौ युगे ॥" ( मनु० १२८६)श्रेष्ठ है। तत्परवत्तीं चार युग मध्यम तथा सत्ययु गमें तपस्या, त्रेतामें ज्ञान, द्वापरमें यज्ञ और अन्तके चार युग सवसे निकृष्ट हैं। प्रथम विष्णु- कलियु गमें दान ही एकमात्र परम धर्म है। युग है। बृहस्पति जिस समय धनिष्ठा नक्षत्रका प्रथ- "ध्यान परं कृतयुगे वेतार्या ज्ञानमध्वरः । मांश प्राप्त कर माघ मासमें उदय होते हैं, उसी समय द्वापरे यज्ञमेवाहुर्दानमेकं कलौ युगे ।" (कर्मयु० २८ १०) प्रभा नामक वर्ष मारम्भ होता है। यह वर्षे प्राणियोंका हितकारक है। द्वितीय वर्षका नाम विभव, तृतीय सत्ययु गमें ध्यानयज्ञ, वेतामें ज्ञानयज्ञ, द्वापर में कम शुक्ल, चतुर्थ प्रमोद और पञ्चम वर्णका नाम प्रजापति है। यह और कलियु गमें एकमात्र दानयक्ष ही प्रधान धर्म है। विष्णुपुराणमें लिखा है, कि भगवान् विष्णुने जगत्की ये वर्ण उत्तरोत्तर शुभप्रद हैं। ये सव वर्ष राजगण पृथिवी पर इस प्रकार शासन करते हैं, कि पृथिवी रक्षा करनेके लिये चार य गोंमें इस प्रकार व्यवस्था कर दी है। वे सत्यय गमें सर्वभूतहिताथ महर्षि कपिला- शस्यशालिनी और मनुष्य भयशून्य तथा शत्रुताविहीन होते हैं। दिरूप अवलम्बन कर सभी प्राणीको उत्कृष्ट सत्यशान प्रदान करते हैं। त्रेताय गमें चक्रवत्ती खरूप दुष्टोंका ___द्वितीय युग अर्थात् वृहस्पति युगमे जो पानवत हैं निग्रह करके जगत्की रक्षा करते हैं। द्वापरमें वेदव्यास | उनके नाम हैं अङ्गिरा, श्रीमुख, भाव, युवा और धाता। रूप धारण कर एक वेदको चार भागोंमें, पीछे सौ | इनमेंसे प्रथम तीन वर्ष वाकीसे अच्छे हैं। शेष दो शाखाओंमें और फिर उसे अनेक प्रशोमें विभक्त कर स्वभावापन्न हैं। अङ्गिरा आदि तीन वर्षोंमें देवगण देते । कलियुगके शेषमें कल्किरूप ग्रहण कर दुवृत्तोंको सुष्टि करते है तथा मनुष्य निरातङ्क और निर्भय होते सत्पथ पर लाते हैं। (विष्णुपु० ३।२ अ०) हैं। शेष दो वर्षों में सुष्ठि तो होती है, पर रोग और वृहत्संहितामें युगका विषय इस प्रकार लिखा है, युद्ध हुआ करता है। प्रभवादि साठ सम्वत्सरोंका १२ युग होता है। ६० वृहस्पतिके विचरणसे ऐन्द्र नामक जो तृतीय युग वर्णका १२ युग होनेसे प्रति पांच वर्ण करके एक एक युग प्रवृत्त होता है, उसके प्रथम वर्णका नाम ईश्वर है, द्वितीय हुमा करता है। इन बारह युगोंके वारह अधिपति हैं।। बहुधान्य, तृतीय प्रमाथी, चतुर्थ विक्रम और पञ्चम वृष जिनके नाम ये हैं,-विष्णु, सुरेज्य, वलमिद्, अग्नि, है। इनमेंसे प्रथम और द्वितीय वर्ष शुभप्रद है। यहां तक त्वया, उसर प्रोष्ठपद, पितृगण, विश्व, सोम, शक्रानिल, कि वह प्रजाओंके सम्बन्ध सत्ययुगका काम करता अश्वि और भग। इन यु गाधिपतियोंके नामानुसार सभी। है. प्रमाथी वर्ण अत्यन्त पापदायक है । विक्रम और वृष