पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/६७५

विकिस्रोत से
यह पृष्ठ अभी शोधित नहीं है।

६७२ हस्तिकुम्भमुक्ता, व्यूहरचनावस्थितसेना और सुरपुष्प- । "राज्ञो वलं नहि बलं द्वन्द्वमेव बलं बलम। . वृष्टि। (कविकल्पलता) अप्यल्पबलवान् राजा स्थिरोद्वन्द्वबलाद् भवेत् ॥ '"अग्निष्टोमादिभिर्यज्ञरिष्ट्या विपुलदक्षिणः। एकः शतं योधपति प्राकारस्थो धनुर्द्धरण । नतत्फलमवाप्नोति संग्रामे यदवाप्नुयात् ॥ शतं दशसहस्राणि तस्मात् दुर्ग विशिष्यते ॥". : इति यज्ञविन्दः प्राहुर्यज्ञकर्मविशारदाः । (युक्तिकल्पतंक) तस्मात्तत्ते प्रवक्ष्यामि यत्फलं शस्त्रजीविनाम् ॥" दुर्ग ऋत्रिम और अकृत्रिमके भेदसे दो प्रकारका है। __ (अग्निपु० युद्धपु०) प्रचुर दक्षिणायुक्त अग्निष्टोमादि यज्ञ करनेसे जो नद्यादि तट पर जो दुर्ग अवस्थित है वह अकृतिम है। फल नहीं मिलता. एकमात्र न्यायानसार य रनेसे| शत्रु ऐसे दुर्ग पर चढ़ाई नहीं कर सकता। जो नर्थ वह फल मिलता है। दूसरेको सेनाको भेद कर यदि चहारदीवारी, खाई और अरण्यके भीतर निर्मित है वह युद्ध में मृत्यु हो जाय; तो अर्थ, धर्म, और यश लाभ होता कृत्रिम है। ऐसे दुर्ग पर शत्रु चढ़ाई भी सकता है है और अन्तमें उसे विष्णुलोकको प्राप्ति होती है। केवल और नहीं भी कर सकता है। यही नहीं, उसे चार अश्वमेध यज्ञका फल भी प्राप्त "अकृत्रिम कृत्रिमञ्च तत्पुन विविधं भवेत् । होता है। यद्देवमुचितं द्वन्द्र गिरिनद्यादि संश्रियम् ॥ "धर्मलाभोऽर्थलाभश्च यशोलाभस्तथैव च । अकृत्रिममिदं शेयं दुर्लङध्यमरिभूभुजाम् । यः शूरो वध्यते युद्धविमृदन परवाहिनीम् ॥ प्राकारपरिख्यारपयसंश्रय यद्भवेदिह । विष्णोः स्थानमवाप्नोति एवं युध्यन् रणाजिरे । कृत्रिमं नाम विशेय' लयालङ ध्यन्तु वैरिणाम् ॥" . अश्वमेधानवाप्नोति चतुरस्तेन कर्मणा ॥" (अग्निपु० युद्धप्र०) (युक्तिकल्पतरु) युक्तिकल्पतरुमें लिखा है, कि समतल स्थानमें रथ ___ महाभारतके राजधर्भानुसार-पर्वाध्यायमें लिखा युद्ध, विपमक्षेत्रमें हस्तिय द्ध, मरुभूमिमें अश्वयुद्ध, दुर्गम- है, सत्य, जीवित, निरपेक्षता, शिष्टाचार और कौशल स्थानमें पत्तियुद्ध, जलमें नौकायु द्ध तथा विपत्तिकालमै | द्वारा ही युद्धधर्म प्रतिपालित होता है। खवोंको सरल सभी प्रकारका युद्ध करना चाहिये। युद्धकालमें सेना और वक्र दोनों प्रकारको बुद्धि रखनी चाहिये । वक- पतिको चाहिये, कि वह अपनी सेनाको सूचीमुख करके बुद्धिसे लोगोंका अनिष्ट न करके आई हुई विवाहसे अपनी रखे। क्योंकि इससे थाड़ी सेना भारी सेनाके साथ रक्षा करे । शत्रु राजाओंमे फूट पैदा करके उनका सर्ग- युद्ध कर सकेगी। नाश करनेकी चेष्टा करता है। किन्तु राजा यदि वक्र "रथयुद्ध' समे देशे विषमे हस्तिसङ्गरः । बुद्धि-सम्पन्न हो, तो वह कभी भी अपना मतलब नहीं 'अत्यये सर्व युद्ध स्यान्नौकायुद्ध जलप्लुते । निकाल सकता। संहत्य योधयेदन्यान् कामं विस्तारयेद्वहून ॥ युद्धार्थी राजाओंको उचित है, कि वे गज, चर्म, यूप, सुचीमुखमनीकं स्यादल्पं हि वदभिः सह ॥" अजगरकी अस्थि ओर कण्टक, चामर, तेज अस्त्र, पीत (युक्तिकल्पतरु) लोहितवर्ण, नाना वोंमें रश्चित ध्वज और पताका, राजाओंका द्वन्द्व ही एकमात्र प्रधान वल है। यदि ऋष्टि, तोमर, निशित खड़ग, परशु, फलक, चर्म और वे बलहीन हो, पर युद्धविधा जानते हों तो वही वलिष्ठ कृतनिश्चय योद्धाओंको संग्रह कर रखें। चैत वा है। एक धनुर्धारी योद्धा दीवार पर चढ़ कर सैकड़ों अगहनके महीनेमें युद्धके लिये सैन्यसंग्रह करना ही -योद्धाओं के साथ युद्ध कर सकता है। दुर्ग दश लाख उचित है। जयाथीं राजा सेनाओंको उत्तम पथसे ले योद्धाओंको मुकाबला कर सकता है, इसलिये दुर्ग सव- से श्रेष्ठ है। जाय' । सत्कुलसम्भूत महावलिष्ठ पराक्रान्त वीरोको ही