पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/६९१

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६५ · युवराज-यूका युवराज (सं० पु० ) १ भावी बुद्धविशेष। पर्याय-मैत्रेय, । युष्मेषित (सं० वि० ) तुम लोगों द्वारा प्रेरित । अजित । युवा वालो राजा पुनां वा राजा, टच समा- मोत (सं० त्रि०) तुम लोगोंका प्रिय या अनुगत । सान्तः। २ राजाका वह राजकुमार जो उसके राज्यका | यू (सं० स्त्री०) १ वृष, साँड़। २ पकी हुई दालका पानी उत्तराधिकारी हो, राजाका वह सबसे बड़ा लड़का जिसे | जूस। आगे चल कर रोज्य मिलनेवाला हो। यूक (सं० पु० ) यौतोति यू ( अजिय धूनीभ्योदीर्घश्य । उण युवराजत्व (सं० क्ली०) यवराजस्य भावः त्व। युव- ३४७) इति कन्, दीर्घश्च । मत्कुन, जू नामक कोडे जो राजका भाव या धर्म, यौवराज्य । वाल या कपड़ों में पड़ जाते हैं, ढील । युवरोजी (हिं० स्त्री०) युवराजका पद, यौवराज्य। यूकदेवी (सस्त्रो०) राजकन्याभेद। युवराज्य ( स० क्ली०) युवराजका पद । | यूका (सं० स्त्री०) यूक-स्त्रियां टाप। १ मत्कुन, जूं युववलिन ( स० त्रि०) युवा वलिनः। यौवनावस्थामें | नामक कीड़ा जो सिरके वालोंमें होता है। पर्याय- बलवान् । केशकीट, स्वेदज, षट्पद, पाली, वालकृमि। २ कृमि युवश ( स० त्रि०) युवा, जवान । विशेष। वाह्य और आभ्यन्तर भेदसे कृमि दो तरहका युवा (सं० स्त्री० ) १ युवन् देखो। २ अग्निको वाणभेद ।। होता है। वाह्यमल अर्थात् धर्म, कफ, रक्त और विष्ठा- युवाकु (सं० त्रि०) तुम दोनोंके अधिकृत । से यह उत्पन्न होता है। यह कृमि वीस तरहका है। यवादत्त (सं० लि.) तुम दोनोंको जो दिया गया हो। । ५ काख्य कृमि शारीरिक स्वेदजात है। इसकी आकृति थुवानगिड़का (सं० स्त्रो०) मुहांसा। और वर्ण तिलकी तरह होता है। ये.सव छोटे कीड़े युवानीत (सं० त्रि०) तुम दोनोंसे लाया हुआ। वाल और कपड़े में रहते है। • इनमें भेद केवल इतना युवाम ( स० क्लो० ) नगरभेद । हो है, कि जिनके बहुत पैर होते हैं उन्हें यू क या ढील युवायु (सं० त्रि.) तुम दोनोंकी इच्छा करनेवाला। तथा जो छोटे होते हैं उन्हें लिख्य या चीलर कहते हैं । जायज (नि.) तुम दोनों के लिये युज्यमान | पूकाख्य (ढोल ) वालमें और लिख्य ( चीलर ) कण्डे 'अश्वादि। में रहते है। इन कीड़ोंसे क्रमशः पिड़का, कण्ड और युवावत् (स० त्रि०) तुम दोनों के लिये। स्फोटकादि उत्पन्न होते हैं। युष्टप्राम ( स० पु०) एक प्राचीन नगरका नाम । ___धतूरे या पानके रसके साथ पारा लंगानेसे ढील (राजतर० ३१८ ) | अतिशोघ्र नष्ट हो जाते हैं। धतूरे पत्तेका रस या चूर्ण युष्मद् ( स० सर्व नि० ) योषति सजतीति युष. | द्वारा तेल पका कर रगड़नेसे यूक मर जाते हैं। (युष्यसिभ्यां मदिक् । उण ११३८ ) इति मदिक् । तुम, | (भावप्र कृमिरोगाधि.) "नामतो विंशतिविधा वाह्यास्तत्र मलोद्भवाः। मध्यम पुरुष। . . . . . युष्मदोय ( स० त्रि०) य प्मद ईय । तुमलोगेका सम्व- | तिलप्रमाणसंस्थानवर्णाः केशाम्बराश्रयाः ॥ न्धीय तुम लोगोंका। बहुपादाश्च सूक्ष्माश्च यूका लिख्याश्च नामतः । द्विधा ते कोठपिड़काः कपडूगपडान प्रकर्वते ॥" 'युष्मद्विध ( स० वि०) युष्माकं विधाइव विधा यस्य ।। ( माधव निदान क्रिम्यधि०) तुमलोगोंके समान । हारीतके चिकित्सित स्थानमें लिखा है-कृमि वाह्य युष्मादत्त (स० वि०) तुम लोगोंसे दिया हुआ। युष्मादृश् (स.नि.) तुम लोगोंके समान । और आभ्यन्तर भेदसे दो प्रकारका हैं। इनमें वाह्यकृमि यूका और आभ्यन्तर कृमि किंचुलुक कहलाता है। यह युष्मादश ( स० त्रि०) तुम लोगोंके समान । यूका या ढील फिर अतिविकटा, चर्मामा, चर्गय किका, युष्मानीत (सं०नि०) तुम लोगों द्वारा परिचालित । युष्मावत्.(-सं० वि०) तुम्हारे समान । . ! वन्दुकी, वर्चुला, मूत्रसम्भवा और मत्कुणो भेदसे सात