पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/७१०

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योग ७०७ हर्पण, १५ वन, १६ असृक्, १७ व्यातीपात, १८ वरीयान्, । कर्मनिर्षिण अर्थात् कर्मफलमें अनासक्त हैं, वे ज्ञानयोग- १६ परिघ, २० शिव, २१ सिद्ध, २२ साध्य, २३ शुभ, २४ / के, जो कर्मासक्त वा कामी हैं. जिनकी कामनावुद्धि तिरी- शुक, २५ ब्रह्म, २६ इन्द्र, २७ वैधृति। जयोतिषमे इन हित नहीं हुई है, वे कर्मयोग और जो निर्विण्ण वा नाति- सब योगोंके शुभाशुभका विषय इस प्रकार लिखा है,-1 सक्त नहीं हैं तथा भगवत्कथा मुननेकी जिन्हें रुचि "परिघस्य त्यजेदर्द शुभकर्म ततः परम् । है, वे ही भक्तियोगके अधिकारी हैं। त्यजादौ पञ्च विष्कुम्भे सप्तशूले च नाड़िका ॥ भगवानुने गीतामें निष्काम योगका उपदेश दिया है, गगडव्याधातयोः षट् च नव हर्षणवनयोः। इसीसे गीताको योगशास्त्र' कहते हैं। इसी कारण हम वैधृतिव्यतिपातौ च समस्तौ परिवर्जयेत् । लोग गीताके २२ अध्यायमें सांख्ययोग, ३रेमें कर्मयोग, शेवा यथार्थनामानो योगेः कार्येषु शोभनाः ॥" ४थे में ज्ञानकर्मयोग, ५वे में कर्मसंन्यासयोग, ६ठेमें ध्यान- (ज्योतिस्तत्त्व) योग, ८वे में तारकब्रह्मयोग, स्वे में राजगुह्ययोग, १०वे. इनमें से कुछ योग ऐसे हैं जो शुभ कार्योंके वर्जित | में विभूतियोग, ११वें विश्वरूपदर्शनयोग, १२वें में भक्ति- हैं और कुछ ऐसे हैं जिनमे शुभकार्य करनेका विधान | योग, १३वे में क्षेत्रक्षेत्रज्ञयोग, १४व में गुणत्रययोग, १५वें है। वर्जित योग ये सब हैं,-परिघयोगका प्रथमाद्ध में पुरुषोत्तमयोग और १८चे अध्यायमें संन्यासयोगका विष्कम्भयोगका आदि ५ इण्ड, शूलयोगका प्रथम दण्ड, विवरण देखते हैं। इनमेंसे सांख्ययोग ही साधारणतः गण्ड और व्याघातयोगमें ६ दण्ड, हर्ण और वज्रयोगका "योग" कहलाता है। ६ दण्ड तथा वैधृति और समस्त व्यतीपातयोग। महर्षि पतञ्जलिने योगसूत्रमें सांख्ययोगका हो परि- ३८ फलितज्योतिपके अनुसार कुछ विशिष्ट तिथियों, चय दिया है। पातञ्जलदर्शनका एक नाम सांख्यप्रवचन चारों और नक्षत्रों आदिका एक साथ या किसी निश्चित भी है। उसका कारण यह है, कि पतञ्जलिने सांख्यदर्शन- नियमके अनुसार पड़ना । जैसे, अमृतयोग, सिद्धियोग, के प्रवर्शक महर्षि कपिलके दार्शनिक सिद्धान्तोंको ग्रहण अोदययोग इत्यादि । ३६ दर्शनकार पतञ्जलिके अनु- और समर्थन किया है। पचीस तत्त्व अर्थात् पुरुप, प्रकृति, सार चित्तकी वृत्तियोंको चञ्चल होनेसे रोकना, मनको महत्तत्त्व, अहङ्कार, पञ्चतन्मात्र, एकादश इन्द्रिय और .इधर उधर भटकने न देना, केवल एक ही वस्तुमे स्थिर पञ्चमहाभूत ये पचीस सांख्यदर्शनके प्रतिपाद्य विषय रखना। ४० छः दर्शनों में से एक जिसमे चित्तको एकान हैं। पातालदर्शनमें भी यही २५ तत्त्व अवलम्बित हुए करके ईश्वरमें लोन करनेका विधान है। है। विशेषता इतनी ही है, कि सांख्याचार्य कपिल ईश्वर- योग-दर्शनकार पतञ्जलिने योगका विषय इस प्रकार की अङ्गीकार नहीं करते, परन्तु पतञ्जलि पचीस तत्त्वके लिखा है,-'योगश्चित्तवृत्तिनिरोधः' चित्तकी वृत्तिके निरोधः, अलावा एक और तत्त्व खोकार करते हैं, वही तत्त्व का नाम योग है। यह चित्तवृत्ति निरोधरूप योग दो ईश्वर है। पातालके ध्यासभाष्यके मतसे यह ईश्वर प्रकारका है, राजयोग और हठयोग। पतञ्जलिने पात- प्रकृति और पुरुपसे स्वतन्त्र हैं, वे पुरुषविशेष हैं। इसी अलदर्शनमे राजयोग और तन्त्रशास्त्रादिमें हठयोगका कारण निरीश्वर सांख्यदर्शनसे पातञ्जलदर्शनको अलग वर्णन किया है। इन दोनों योगका विषय पीछे लिखा करनेके लिये इस 'सेश्वरसांख्य' कहते हैं। और तो जायगा। क्या, पातञ्जलदर्शनसे ईश्वरतत्त्व और चित्तवृत्तिनिरोध- भागवत (११.२०१६-८) मे जीवके कल्याणप्रद तीन का उपायप्रसङ्ग उठा लेनेसे सांख्यदर्शनसे पातालको प्रकारके योग कहे हैं-ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्ति पृथक करनेका और कोई विशेषत्व नहीं रह जाता। योग। इन तीन प्रकारके योगोंका अवलम्वन करनेसे जीव सहजमें संसारवन्धनसे मुक्त हो सकता है। अधिकारि- सांख्यदर्शन देखो। पातञ्जलदर्शन चार पादोंमें विभक्त है। इन चार नियमसे इस योगका अवलम्बन करना उचित है। जो पादोंके नाम हैं समाधिपोद, साधनपाद, विभूतिपाद