पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/७११

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७०८ योग और कैवल्यपाद। पहले पादमें योगके उद्देश और। छोटे जलाशयको अपेक्षा नदीका परिमाण बड़ा है, 'लक्षण, योगके उपाय और प्रकारभेद ; दूसरे पादमें। फिर नदीको अपेक्षा समुद्रका परिमाण बड़ा है। इस क्रियायोग, क्लेश, कर्मविपाक अर्थात् कर्मफल और कर्मः | प्रकार ज्ञानको भी कमीवेशी है। जिनमें ज्ञानकी फलके दुःखत्व, हेय, हेयहेतु, ज्ञान और ज्ञानोपाय ; | | मात्रा चरमसोमा पर पहुंच गई है, जो सर्वाज्ञ हैं, वे ही तीसरेमें योगके अन्तरङ्ग, अङ्ग, परिणाम, योगसिद्धिसे | ईश्वर हैं। अणिमादि ऐश्वर्यप्राप्ति और चौथे पादमें कैवल्यमुक्तिका ___ इसी कारण पातञ्जलदर्शनके मतसे तत्त्व २५ नहीं विषय निर्दिष्ट है। ( योगवार्तिकमें वाचस्पतिमिश्र ) २६ हैं। किन्तु उन सब तत्वोंकी आलोचना इस दर्शन- इन चार पादों में कुल १६ सूत्र हैं। ईश्वरतत्त्वनिरू- का मुख्य विषय नहीं है । वाचस्पतिमिश्रने कहा है, पण हो योगशास्त्रका प्रधान उद्देश्य है। वह ईश्वरतत्त्व | कि प्रधानादिका प्रतिपादन योगशास्त्रका मुख्य विषय क्या है ? महर्षि पतञ्जलिने ऐसा कहा है- ____ "क्लेशकर्मविपाकाशयैरपरामृष्टः पुरुपविशेष ईश्वरः।" नहीं, किन्तु योगके स्वरूप, साधन, गौण फल विभूति और उसका परम फल कैवल्यका निरूपण हो योगशास्त्र- (योगसु० १२४) अर्थात् क्लेश, कर्म, विपाक और आशयका सम्पर्क - का प्रतिपाद्य है । अतएव योग ही पातञ्जलदर्शनका मुख्य शून्य पुरुषविशेष ही ईश्वर है। विषय है ; इसीसे इसका दूसरा नाम योगदर्शन है। "तत्र निरतिशय सर्वज्ञवीज" ( योगसू० १।२६ ) ___योगशास्त्रके चार पर्व है, हेय, हेयहेतु, हान और अर्थात् उनमें ज्ञानका चरम उत्कर्ण है। वे माज्ञ हैं। हानोपाय । अन्यान्य र्शनको तरह पातञ्जलदर्शनके मा "स एव पूर्वेपामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात् ।" । १२२६ ) मतसे- वे ( ब्रह्मादि ) पूर्व आचार्योंके भी गुरु हैं ; क्योंकि वे | "सर्व दुःखमेव विवेकिनः हेयं दुःखमनागतम् ।" कालके अतीत हैं। (योगस० २।१५-१६) क्लेश पांच प्रकार है, अविद्या ( मिथ्याज्ञान ), संसार दुःखमय है; अतएव हेय है। अस्मिता ( विभिन्न वस्तुमें अभेद प्रतीति ), राग, द्वेप इस हेय संसारका निदान वा हेतु क्या है ? प्रकृति और अभिनिवेश (मरणभय )। म सुकृत और दुकृत । पुरुपका संयोग है। (पाप और पुण्य) है; विपाक अर्थात् कर्मफल है। कर्मका| "द्रष्टु-दृश्ययोः संयोगो हेयहेतुः।" (योगस० २।१७) . फल तीन प्रकारका है, जन्म. आयु और भोग। आशय विन्तु इस संसारका अत्यन्त उच्छेद सम्भवपर अर्थात् विपाकके अनुरूप-संस्कार है। साधारण पुरुष है, इस हेयको निवृत्ति हो सकती है ; इसका नाम इन सवका संञव रोक नहीं सकता। मुक्त पुरुपौ । हान है। क्लेशादिका कोई सम्पर्क नहीं रहता; किन्तु मक्तिके इस हानका उपाय क्या ? प्रकृति पुरुषका निश्चल पंहले वे भी क्लेशादिके अधीन थे। किन्तु पुरुषविशेष | भेदज्ञान । ईश्वर में कभी भी फ्लेशादिका संस्पर्श न था। कारण, | "विवेकल्यातिः अविप्लवा हानोपायः।" (योगस० २१६) 'वे नित्यमुक्त हैं। पुरुष (जीव) जैसे अनेक हैं, | पुरुषविशेष ( ईश्वर ) वैसे अनेक नहीं हैं। इस सम्वन्धमें व्यासने कहा है, जिस प्रकार चिकि- वे एक और अद्वितीय हैं। ईश्वर कालके द्वारा अविच्छन्न। त्साशास्त्र रोग, निदान, आरोग्य और भैषजा, इन चार भागों में विभक्त है. उसी प्रकार योगशास्त्र भी४व्यहाँ- नहीं हैं। भूत, भविष्य और वर्तमान, तीनों ही कालके | वे परे हैं। ब्रा, मनु, सप्तर्पि आदिने कल्पमन्वन्तर में विभक्त है ; जैसे, संसार, संसारका हेतु, मुक्ति और प्रारम्भमें जिस शास्त्रादिका उपदेश वा प्रचार किया. मुक्तिका उपाय । दुःखबहुल संसार हेय, प्रकृति पुरुषका संयोग संसार हेतु, संयोगको अत्यन्तनिवृत्ति ज्ञान और उन्होंने वह शास्त्रज्ञान कहांस पाया ? ईश्वरसे। इसी कारण उन्हें पूर्ण गुरुओंके भी गुरु कहा है। । ज्ञानका उपाय सम्यग्दर्शन है। (२।१५ सत्रका व्यासभाष्य)