पृष्ठ:हिन्दी विश्वकोष अष्टादश भाग.djvu/७१२

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योग ७०६ यह जो प्रकृति पुरुषका निश्चल भेदज्ञान है, वह । जो चित्तवृत्ति-निरोध द्रष्टा (मात्मा )-के स्वरूपमें । पातालके मतसे मोक्षलाभका अद्वितीय पन्था है। उस अवस्थानका कारण होता है उसे योग कहते हैं ।. जिस ज्ञानको अर्शन करनेका उपाय क्या? सांख्योका कहना उपायका अवलम्वन करनेसे पुरुष द्रष्ट्रस्वरूपमें अवस्थान है, कि उनके आविष्कृत पचीस तत्त्व जान सकनेसे ही कर सके, वहो उपाय योग है। वह सम्यगज्ञान लाम किया जाता है। उसी कारण क्षिप्तादि अवस्थामै चित्तनिरोध वैसा नहीं है, उसमें योगशास्त्रको अवतारणा की हुई है। क्योंकि पतञ्जलि | आत्माके स्वरूप, अवस्थान नहीं होता। 'सम्पज्ञात के मतसे प्रकृति-पुरुष निश्चल भेदज्ञान लामका एकमात्र अवस्थामें सात्विकवृत्ति रहती है इसीसे आत्माके उपाय योग है। यह योग क्या है? स्वरूप में अवस्थान नहीं होने पर भी असम्प्रज्ञात अवस्था- में होता है। सम्प्रज्ञातसे ही असम्पज्ञातकी उत्पत्ति योगका लक्षण---"योगचित्तवृत्तिनिरोधः।" होती है। अतएव सम्प्रज्ञात समाधि आत्माके स्वरूपा. (मोगसूत्र ११२) वस्थाका हेतु हैं। योगके लक्षणमें सर्व शब्द प्रवेश है अर्थात् सभी भाष्यकारके मतसे योगका अर्थ समाधि है वा चित्त- चित्त-वृतिका निरोध योग है, यदि ऐसा कहा जाय, तो वृत्तिनिरोध है | क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त, निरुद्ध और संप्रज्ञात समाधिमें योगका लक्षण नहीं जाता, अतएव | एकाग्रके भेदसे चित्तकी वृत्ति पांच प्रकारको है। इसको अध्याप्तिदोप होता है। क्योंकि संप्रज्ञात अवस्थामें चित्त | चित्तभूमि कहते हैं । क्षिप्त, मूढ़ और विक्षिप्त चित्त के ध्येय आकारमें सात्विक वृत्ति रहती है, सभी वृत्ति भूमिमें योग नहीं हो सकता, केवल एकान और निरुद्धा- निरोध नहीं होती। पहले ही कह गाये हैं, कि संप्रज्ञात अवस्था ही होता है। (योगभाष्य ११) अवस्थामें कुछ न कुछ रह ही जाता है, कुछ निरोध नहीं सत्त्व, रज और तमः ये तीनों गुण चित्तके उपादान होता, इस लिये किस प्रकार संप्रज्ञात योग हो सकता । हैं, अतएव उसके सभी धर्म चित्तमें निहित है। जिस है ? (व्यासमाष्य) समय रजोभागकी अधिकताके कारण चित्त चालित हो योगके लक्षणमें चित्तको ससी वृत्तियोंके निरोधको योग कर ताडितप्रवाहकी तरह दूसरे विषयमें दौड़ता है कहते हैं, ऐसा लक्षण यदि न दिया जाय, तो व्युत्थान सेभित कहते हैं। इस अवस्थामें वित्त जरा भी (क्षिप्त, मूढ़, विक्षिप्त ) अवस्थामें योग हो सकता है। स्थिर नहीं रह सकता, हमेशा चश्चल रहता है। अतः क्योंकि, उसमें किसी न किसी वृत्तिका निरोध होता ही चित्तकी ऐसो अवस्थामे कदापि योग नहीं हो सकता। है। कारण, चित्तवृत्तिका स्वभाव ऐसा है, कि एकके आविर्भावकालमे दूसरेका तिरोभाव होता है । अव चित्तको शितावस्था रहते योगावलम्बग विडम्बनामात्र देखा जाता है, कि सर्वशब्द-प्रवेश वा अप्रवेश अर्थात् हैं। गालस्य, तन्द्रा और मोह गादि वृत्तिको मूढ कहते नित्तका वृत्ति-निरोध वा चित्तका सनवृत्ति निरोध, ये है । इस अवस्थामे भी योग नहीं होता। हमेशाचश्चल : दोनों ही लक्षण देखे जाते हैं। सर्वाशब्दका प्रवेश करने- रह कर कमी स्थिर भाव अवलम्बन करनेको विक्षिप्त से लक्षा (संप्रज्ञातसमाधि) में लक्षण नहीं होता तथा भूमि कहते हैं। इस अवस्थामें यद्यपि चित्त कभी कभी सर्नशब्दप्रवेश नहीं करनेसे अलक्षा (क्षिप्त्यादि स्थिर रहता भी है, तो भो इसमें योग नहीं हो सकता। क्यों वह विक्षेपका उपसर्जन अर्थात् विक्षेप द्वारा सर्वातो- अवस्था में लक्षण जाता है जिससे अतिव्याप्तिदोष भावमें परिष्याप्त है। विक्षिप्त चित्तमें यद्यपि कभी कभी देखा जाता है। सात्विकभाव आविर्भूत हो कर चित्तकी स्थिरता होती भाष्यकारने इसकी मीमांसा इस प्रकारको है, है, तथापि यह विक्षेप द्वारा विलकुल परिहित है। “तदा द्रष्टुः स्वरूपेऽवस्थान" इस सूत्रके साथ एक वाक्यता| एक विषयमें ज्ञानधाराका नाम एकान है। संसार करके, 'द्रष्टुः स्वरूपावस्थितिहेवृश्चित्तनिरोधे योगः' अर्थात् मात्र शेष रह कर सभी वृत्तियों के विरोधको निरुद्धभूमि Vol. XVIII, 178